सोमवार, 23 नवंबर 2009

ओबामा क्यों बिछ गये यों चीन के आगे

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा पिछले दिनों चार एशियायी देशों- जापान, चीन, सिंगापुर एवं द. कोरिया- की यात्रा पर थे। इस यात्रा में उनका सर्वप्रमुख पड़ाव चीन का था। बड़ी आशाएं लेकर वह चीन गये थे, लेकिन एक भी पूरी नहीं हो सकीं। चीन का सहयोग पाने के लिए वह उसके सामने बिछ गये, लेकिन चीन ने तनिक भी रियायत नहीं बरती। उलटे उसने अमेरिकी राषट्रपति को अपने एजेंडे पर नचाया। यों, ओबामा की यह पूरी यात्रा ही विफल रही, लेकिन चीन में तो उन्हें भारी कूटनीतिक पराजय का मुंह देखना पड़ा। चीन ने उनका भरपूर राजनीतिक इस्तेमाल किया और बीजिंग में उनकी उपस्थिति को यह प्रदर्शित करने में अधिक उपयोग किया कि वह बाहरी दबावों को किस तरह परे धकेल सकता है और विश्व की सर्वोच्च महाशक्ति से भी अपनी बातें मनवा सकता है।
आश्चर्य होता है कि अमेरिका के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा चीन के आगे इस तरह बिछ गये कि वह जो कुछ कहता गया, सब मानते गये और जितना झुकाता गया, उतना झुकते गये। जापान के सम्राट अकाहितो के आगे वह कहां तक झुक गये, यह तो सभी ने देखा, लेकिन चीन में तो लगता है वह पाणिपात की ही मुद्रा में आ गये थे। फिर भी चीन उनकी किसी अदा पर नहीं पसीजा और उनकी हर उस मांग को ठुकरा दिया, जिसे मनवाने की आशा लेकर वह उसके दरबार में गये थे। ओबामा की इस यात्रा के दौरान चीन ने यह अच्छी तरह प्रदर्शित किया कि बाहरी दबावों का न केवल वह आसानी से मुकाबला कर सकता है, बल्कि विपरीत स्थितियों में भी अपनी बातें पहले मनवा सकता है।
राष्ट्रपति ओबामा एशिया की पहली लंबी यात्रा पर 13 नवंबर को सबसे पहले जापान पहुंचे, वहां से सिंगापुर, फिर सिंगापुर से चीन और वहां से दक्षिण कोरिया। इनमें से दक्षिण कोरिया तो अमेरिका की रियाया ही है, इसलिए उसे तो इस यात्रा के आकलन से बाहर ही कर देना चाहिए। अब यदि बाकी तीन देशों की यात्राओं का मूल्यांकन करें, तो यही कहना पड़ेगा कि तमाम सार्वजनिक लोकप्रियता के बावजूद ओबामा की यह यात्रा पूरी तरह विफल रही।
यों शुरुआत बहुत निराशाजनक नहीं रही। यात्रा के प्रथम चरण में ओबामा जब टोकियो पहुंचे, तो निश्चय ही उनका एक विश्व नेता की तरह स्वागत हुआ। टोकियो की सड़कों पर लोग वर्षा के बावजूद उनके स्वागत में खड़े थे और नारे लगा रहे थे। यहां वह जापान के सम्राट अकाहितो से एकदम कमर तक झुक कर (कोर्निस की मुद्रा में) मिले। जापानी संस्कृति में झकने का अर्थ सम्मान प्रकट करना होता है। जितना अधिक झुकना उतना अधिक सम्मान। तो ओबामा साहब अधिकतम सम्मान प्रदर्शित करने के लिए कमर तक झुक गये। एक बुजुर्ग राष्ट्र प्रमुख को सम्मान देना कतई अनुचित नहीं, लेकिन ओबामा साहब ने ध्यान नहीं रखा कि अकाहितो जापानी राजशाही के अवशिष्ट प्रतीक हैं, जबकि वह स्वयं दुनिया के एक सर्वाधिक शक्तिशाली लोकतंत्र के प्रधान हैं। झुकें , लेकिन झुकने की भी तो कोई सीमा होनी चाहिए। खेद की बात यह है कि इतना झुकना भी जापानी नेताओं के साथ बातचीत में कोई काम नहीं आया। 'कांतेई(जापानी ह्वाईट हाउस) में बंद दरवाजों के पीछे जब प्रधानमंत्री यूकिओ हातोयामा के साथ बातचीत शुरू हुई, तो ओबामा को पता चला कि यहां का वातावरण टोकियो की सड़कों की तरह का नहीं है। अमेरिका, जापान के फ्यूटेन्मा स्थित अपने नौसैनिक एवं वायु सैनिक अड्डे के दक्षिणी द्वीप पर स्थापित करना चाहता है, लेकिन जापान इसके लिए सहमत नहीं है। वास्तव में जापान इस पुराने अड्डे को ही बंद कराना चाहता है, क्योंकि अब यह अमेरिकी अड्डा देश में बेहद अलोकप्रिय हो चुका है। ऐसे में नये अड्डे की स्वीकृति एक मुश्किल काम है, जबकि अमेरिका के लिए यह आवश्यक है। मतभेदों की गहराई को देखते हुए दोनों पक्षों ने इस मुद्दे पर विचार के लिए एक 'कार्यदल बनाने का निर्णय लेकर फिलहाल बातचीत को टाल दिया। वस्तुत: द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका ने जापान को उसके सैन्य अधिकार से वंचित कर दिया और उसकी रक्षा की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। जापान को इसका लाभ भी हुआ, क्योंकि उसे रक्षा की चिंता छोड़कर अपने आर्थिक विकास पर ध्यान केंद्रित करने का पूरा मौका मिला। लेकिन इससे उसका स्वाभिमान अब तक आहत बना हुआ है, इसलिए हर जापानी चाहता है कि जापान को स्वतंत्र सैन्य विकास का अवसर मिले और अमेरिका अपनी सेना पूरी तरह से वहां से हटा ले। जापानी रक्षा विशेषज्ञों के अनुसार अमेरिका और जापान के बीच सबसे बड़ा अकेला द्विपक्षीय सवाल यही है कि शीत युद्धकालीन उनके रक्षा गठबंधन को आज के समय में कैसे प्रासंगिक बनाये रखा जाए, जबकि बढ़ती चीनी शक्ति ने इस क्षेत्र के शक्ति संतुलन को बिल्कुल बिगाड़ दिया है। किन्तु दोनों ही देश इस सवाल से आंखें चुराते नजर आते हैं।
ओबामा का अगला पड़ाव सिंगापुर था, जहां 'एशिया प्रशांत आर्थिक सहयोग सम्मेलन (एशिया पैस्फिक इकोनॉमिक कोऑपरेशन कांफ्रेंस) में शामिल होना था। इस सम्मेलन ने इस वर्ष जो सुर्खियां बटोरीं वे निश्चय ही अमेरिकी पसंद की नहीं होंगी। इस संगठन में चीन और जापान भी शामिल हैं। इन देशों ने जल्दबाजी में बुलायी गयी एक सुबह नाश्ते की बैठक में इसी बात की पुष्टि की कि 'मौसम में बदलाव के सवाल पर अगले महीने कोपेनहेगेन में जो सम्मेलन होने जा रहा है, उसके पूर्व वे अपने मतभेदों को दूर नहीं कर सकेंगे।
यहां से ओबामा बीजिंग पहुंचे। वहां भी उनका बाहर स्वागत सत्कार बहुत शानदार था। चीन सरकार ने उनके सम्मान में एक भव्य भोज का भी आयोजन किया। सब कुछ ऐसा कि ओबामा अभिभूत थे। पर चीनी नेताओं ने ओबामा की कूटनीतिक शिथिलता का पूरा फायदा उठाया और उनसे चीन की सारी अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति का समर्थन कराने के बावजूद एक भी अमेरिकी मांग स्वीकार नहीं की। उन्होंने केवल उसी अमेरिकी प्रस्ताव को स्वीकार किया, जो चीन के हित में था, बाकी सारे मसलों पर टका सा जवाब दे दिया।
अमेरिकी दैनिक न्यूयार्क टाइम्स ने लिखा है कि 'चीनी राष्ट्रपति हू जिंताओ के साथ 6 घंटे की बैठक, दो भोज तथा 30 मिनट की न्यूज कांफ्रेंस के दौरान- जिसमें हू ने किसी को सवाल करने की इजाजत नहीं दी थी- राष्ट्रपति ओबामा का मुकाबला एक ऐसे तेजी से उभर रहे चीन से हुआ, जो अमेरिका को केवल नकारने में अधिक रुचि रखता है। यह बिल्कुल सही है, क्योंकि चीन ने अमेरिकी एजेंडे में शामिल अधिकांश बातों को नकार दिया।
अमेरिकी एजेंडे में तीन प्रमुख मुद्दे थे। एक तो ईरान और उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम नियंत्रण। दूसरा चीनी मुद्रा युआन का मूल्य सही करना और तीसरा मानवाधिकारों का सम्मान, जिसमें तिब्बत का मसला भी शामिल था। चीन ने इनमें से किसी भी अमेरिकी प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। राष्ट्रपति हू ने ईरान पर संभावित प्रतिबंध की सार्वजनिक तौर पर कोई चर्चा नहीं की। उन्होंने चीनी मुद्रा का मूल्य ठीक करना भी स्वीकार नहीं किया। चीन जानबूद्ब्राकर अपनी मुद्रा युआन का विनिमय मूल्य उसके वास्तविक मूल्य से कम रखे है जिससे कि उसका माल विदेशों में सस्ता पड़े और निर्यात को प्रोत्साहन मिले। उसकी इस नीति के कारण अमेरिका को भारी घाटा उठाना पड़ रहा है, क्योंकि चीनी माल वहां सस्ते पड़ रहे हैं और दोनों देशों का व्यापारिक संतुलन चीन की तरफ द्ब्राुका हुआ है। यानी चीन अमेरिका को निर्यात अधिक करता है आयात कम। और मानवाधिकार के सवाल पर तो चीन ने संयुक्त घोषणापत्र में डंके की चोट पर कहा है कि इस मुद्दे पर दोनों देशों में मतभेद हैं यानी वह मानवाधिकार की अमेरिकी अवधारणा को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है।
चीन ने ओबामा की यात्रा का ऐसा सुनियोजित एवं सूक्ष्म प्रबंध किया था कि इसमें चीनी मत की पुष्टिï हो और अमेरिकी विचार चर्चा में भी न आने पाएं। चीन ने ऐसी व्यवस्था की कि ओबामा ऐसे बयान दें जिससे चीनी नीतियों की पुष्टिï व उसके उद्देश्यों का समर्थन हो। उसने बड़ी चतुराई से ऐसा कुछ किया कि मानवाधिकार तथा चीनी मुद्रा जैसे विषयों पर कोई चर्चा न हो। कार्नेल यूनिवर्सिटी में चीन मामलों के विशेषज्ञ ईश्वर एस. प्रसाद के अनुसार चीन ने बड़े अद्भुत कौशल से सार्वजनिक चर्चा को चीनी मुद्रा नीति के दुनिया पर पड़ रहे खतरनाक प्रभाव से हटाकर अमेरिका की ढीली वित्तीय नीति तथा उसकी संरक्षणवादी प्रवृत्ति की ओर मोड़ दिया।चीन के ऐसे प्रबंध के कारण ओबामा की इस चीन यात्रा से चीन को यह प्रदर्शित करने का बेहतर अवसर मिला कि किस तरह वह बाहरी दबावों को बिना प्रयास दूर धकेल सकता है और अमेरिका का अपना एजेंडा चर्चा से बाहर रह गया।
अपनी यात्रा शुरू करते ही सबसे पहले ओबामा ने यह घोषणा की कि तिब्बत चीन का अंग है। चीन को प्रसन्न करने के लिए ही उन्होंने वाशिंगटन में तिब्बती नेता दलाई लामा से मिलने से इनकार कर दिया था। ओबामा के चीन पहुंचने पर अमेरिकी पक्ष से कहा गया कि राष्ट्रपति चीनी युवाओं से मुलाकात करना चाहते हैं और यह भी चाहते हैं कि इस मुलाकात को टीवी पर दिखाया जाए और उसे नेट पर भी ऑनलाइन उपलब्ध कराया जाए। चीन ने इसकी भी व्यवस्था कर दी। शंघाई पहुंचने पर ओबामा को युवाओं से मिलने का मौका दे दिया गया, किन्तु इसमें सामान्य छात्रों के बजाय चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों को प्रमुखता से पेश किया गया। सरकार ने इसे शंघाई टीवी पर प्रसारित किये जाने की भी सुविधा दे दी। ओबामा ने युवाओं को प्रभावित किया, लेकिन मानवाधिकारों व अभिव्यक्ति स्वतंत्रता पर बहुत संभल कर बोले। उन्होंने 'नेट पर मुक्त सूचना प्रवाह का भी समर्थन किया, लेकिन काफी सावधानी के साथ जैसे यह कहा कि हर देश की अपनी संस्कृति होती है, अपनी आवश्यकता होती है, जिसके अनुसार वह अपनी व्यवस्था कर सकता है। यहां यह उल्लेखनीय है कि चीन में नेट पर जो सूचनाएं प्राप्त होती है वे सरकारी तंत्र की छनाई के बाद ही आ पाती है। ओबामा ने यह जरूर कहा कि मुक्त सूचना प्रवाह से किसी भी देश या समाज की शक्ति और बढ़ सकती है मगर उन्होंने चीनी व्यवस्था की कोई निन्दा आलोचना नहीं की। उनकी नजर अगले दो दिन की उन मुलाकातों पर अधिक थी जो चीनी नेताओं के साथ होने वाली थी।
ओबामा असल में बड़ी आशाएं लेकर चीन की इस यात्रा पर गये थे। आर्थिक मंदी के कारण संकट के दौर से गुजर रहे अमेरिका के लिए चीन एक उद्धारक देश नजर आ रहा था। चीन अमेरिका का सबसे बड़ा साहूकार है और सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार भी। ऐसे में चीन की थोड़ी सी रियायत भी अमेरिका के लिए काफी मददगार सिद्ध हो सकती थी किन्तु चीन ने ओबामा की राई रत्ती नहीं सुनी।
ऐसे में सच कहा जाए तो ओबामा की इस यात्रा के दौरान अमेरिका के हाथ कुछ नया नहीं लगा। यद्यपि ओबामा सरकार के अधिकारियों का दावा है कि राष्ट्रपति महोदय जिन लक्ष्यों को लेकर यात्रा पर गये थे उन्हें पूरा कर लिया गया है, लेकिन इस दावे की पुष्टि के लिए उनके पास कोई प्रमाण नहीं है। उनके अनुसार ओबामा की चीनी नेताओं के साथ बातचीत के बाद जारी पांच सूत्रीय संयुक्त विज्ञप्ति में अनेक मसलों पर दोनों देशों ने मिलकर काम करने का संकल्प लिया है। बयान में कहा गया है कि ओबामा और हू जिंताओ आपस में नियमित रूप से बातचीत करते रहेंगे और दोनों देश एक दूसरे की रणनीतिक चिन्ताओं की ओर अधिक ध्यान देंगे। बयान में यह भी कहा गया है कि दोनों देश आर्थिक मामलों, ईरान तथा मौसम में बदलाव के मसलों पर साझीदार की तरह कार्य करेंगे।
संयुक्त वक्तव्य के इन वाक्यों को देखकर कोई भी कह सकता है कि इनमें कुछ भी ऐसा नहीं है जो अमेरिका के पक्ष में हो बल्कि इसमें अमेरिका को चीन के पक्ष में द्ब्राुकाने का प्रयत्न है। कूटनीतिक विशेषज्ञ जानते हैं कि ऐसी शब्दावलियों का क्या अर्थ होता है। यहां मुख्य सवाल यह है कि चीन की नाराजगी से बचने के लिए अब ओबामा ने वाशिंगटन में दलाई लामा से मिलने से इनकार किया उस समय की स्थिति के मुकाबले क्या चीन या किसी अन्य एशियायी देश में ओबामा अपना अमेरिकी एजेंडा कुछ भी आगे बढ़ाने में सफल हुए हैं। जवाब नकारात्मक ही मिलेगा।
जापान में उनके रवैये से लगता है कि ओकीनावा में अमेरिकी सैनिक अड्डा बनाने के सवाल पर अमेरिकी रुख और नरम हुआ है। सिंगापुर के क्षेत्रीय सम्मेलन में अमेरिका की एक और सर्वोच्च प्राथमिकता वाली विदेशनीति को आघात लगा जब उन्होंने वहां स्वीकार किया कि 'वैश्विक तपन (ग्लोबल वार्मिंग) के खिलाफ लड़ाई का कोई समझोता इस वर्ष संभव नहीं है। ईरान के मसले पर अमेरिकी अधिकारी रूस के राष्ट्रपति दिमित्र ए. मेद्वेदेव को तो यह कहने के लिए तैयार कर ले गये कि 'यदि बातचीत विफल हो जाती है तो ईरान के खिलाफ प्रतिबंधों के सवाल पर उनका कोई पूर्वाग्रह नहीं है।लेकिन यही बात ओबामा चीन से नहीं कहला सके। जबकि यह पता है कि ईरान के विरुद्ध किसी प्रतिबंध के सवाल पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अनुमति के लिए चीन की पूर्वानुमति आवश्यक होगी। चीन ने इस मसले पर अमेरिका के साथ साझीदार के तौर पर काम करने की बात तो की है, लेकिन साथ ही उसने यह भी कहा है कि 'ईरान नाभिकीय विवाद को बातचीत और सलाह मशविरे से हल किया जाना चाहिए।इतना ही नहीं संयुक्त वक्तव्य में हू ने यह भी कहा है कि 'बातचीत के दौरान हमने राष्ट्र पति ओबामा के समक्ष यह स्पष्ट कर दिया है कि राष्ट्रीय परिस्थितियों की अपनी भिन्नता के कारण हम दोनों के लिए यह स्वाभाविक है कि कुछ मुद्दों पर हम असहमत रहें।
'व्हाइट हाउस के कुछ अधिकारी यह स्वीकार करते हैं कि ईरान के मामले में हम हू जिंताओ से वह नहीं प्राप्त कर सके जो हम चाहते थे, किन्तु ओबामा का तरीका दीर्घकाल में फलदायी होगा। हम यह आशा नहीं कर रहे हैं कि वे इस मामले का नेतृत्व करेंगे या कोई धारा में बदलाव ला देंगे, हम तो केवल यह चाहते हैं कि वे अड़ंगा लगाने का काम न करें। यदि यही लक्ष्य था तो भी चीन की तरफ से ऐसा कोई संकेत नहीं था कि वह अमेरिकी रास्ते में अड़ंगा नहीं डालेगा।
संयुक्त वक्तव्य में कुछ बातों को अनावश्यक रूप से प्रमुखता से डाला गया। जैसे कि दक्षिण एशिया के बारे में चीन को दिया गया बेहतर भूमिका निभाने का आमंत्रण। अमेरिका को अच्छी तरह मालूम है कि दक्षिण एशिया की राजनीति में चीन पूरी तरह पाकिस्तान के साथ है और अफगानिस्तान के प्रति भी चीन की वही नीति है जो पाकिस्तान की है फिर ओबामा साहब को यह जरूरत क्यों पड़ी कि वह संयुक्त बयान में यह घोषित करे कि चीन और अमेरिका मिलकर दक्षिण एशियायी देशों में शांति के लिए काम करेंगे। वास्तव में चीन दक्षिण एशिया में अपनी राजनीतिक भूमिका बढ़ाना चाहता है इसलिए उसने ओबामा को इसके लिए तैयार कर लिया कि दक्षिण एशियायी मामलों यानी भारत पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान के मामलों में वे मिलकर काम करेंगे।
संयुक्त वक्तव्य के इस अंश पर भारत की गहरी आपत्ति के बाद चीन व अमेरिका दोनों ने अपनी-अपनी तरफ से सफाई दी है, लेकिन सवाल है ऐसे मुद्दे को संयुक्त वक्तव्य में डाला ही क्यों गया जिस पर बाद में सफाई देनी पड़े, जबकि अमेरिका को तथा राष्ट्रपति ओबामा को यह पता है कि पाकिस्तान के मामले में भारत कितना अधिक संवेदनशील है। भारत की नीति शुरू से ही पाकिस्तान से सम्बद्ध मामले में किसी तीसरे देश के हस्तक्षेप के खिलाफ है। फिर इसका क्या औचित्य था कि ओबामा साहब दक्षिण एशिया के उस देश के मामले में चीन को हस्तक्षेप करने के लिए आमंत्रित करें जिन्हें वह भविष्य के लिए अमेरिका का सबसे बड़ा रणनीतिक साद्ब्राीदार मानते हैं।
अमेरिकी अधिकारी कह रहे हैं कि भारत ने इस संयुक्त वक्तव्य में उससे कुछ ज्यादा ही पढ़ लिया है जितना कि उसमें लिखा गया है। लेकिन कूटनीतिक वक्तव्यों में पंक्तियों के बीच में पढऩा कोई अस्वाभाविक बात तो नहीं। भारत का यह सवाल करना कुछ बहुत नाजायज तो नहीं कि संयुक्त वक्तव्य में इन वाक्यों की जरूरत क्या थी। जाहिर है कि इसका आग्रह चीन की तरफ से किया गया होगा, जिसे अमेरिकी पक्ष ने सहजता से स्वीकार कर लिया। जाहिर है इस मामले में भी चीन के हाथों ओबामा ही पिटे। उन्होंने अनावश्यक रूप से उन बातों को भी संयुक्त वक्तव्य में शामिल होने दिया, जिसे लेकर उनका एक मित्र देश भारत व्यथित हो सकता है।
अब यदि तटस्थ दृष्टिï से मूल्यांकन करें, तो इसमें ओबामा का कोई दोष नहीं, यह उनके स्वभाव का दोष है। वह समद्ब्राते हैं कि विनम्रता तथा मधुरता से पूरी दुनिया का दिल जीता जा सकता है। उन्होंने यह सीखा कि जापान में झुकना आदर सूचक है, तो वह सम्राट अकाहितो के सामने कमर तक झुक गये। शायद उन्होंने सोचा होगा कि इससे सारे जापानी खुश हो जाएंगे। इसी तरह वह सऊदी अरब के शाह के सामने द्ब्राुके थे। वहां भी उन्होंने यही सोचा होगा कि इससे पूरा इस्लामी जगत उनका मुरीद हो जाएगा। चीन पहुंचकर भी उन्होंने वह सारी बातें की, जो चीन को अच्छी लगें और हर चीनी इच्छा को स्वीकार कर लिया। शायद यह सोचकर कि चीन वास्तव में अमेरिका का सहयोगी बन जाएगा। उन्होंने प्रशांत के दोनों तटों के इन दो महान देशों का हवाला भी दिया और उनके बीच घनिष्ठ सहयोग की बातें की, लेकिन चीनी नेता ऐसे किसी दबाव में नहीं आए। उन्हें दुनिया की पहली महाशक्ति बनना है, तो अमेरिका को पछाड़कर ही आगे बढऩा होगा, उसे साथ लेकर नहीं।
कोई भी बड़ा राजनेता जब किसी देश की यात्रा पर जाता है, तो वह पहले से इसकी पृष्ठïभूमि बना चुका रहता है कि इस यात्रा से उसे क्या उपलब्धि होगी, लेकिन ओबामा ने शायद अपनी इस यात्रा के पूर्व ऐसी कोई तैयारी नहीं की थी। उन्हें शायद अपने करिश्मों पर भरोसा था। शायद उन्हें यह नहीं पता था कि चीन ऐसे करिश्मों से प्रभावित नहीं होता।
हो सकता है, ओबामा अपनी इस यात्रा से कुछ सबक लें। चीन के आगे पूरी तरह बिछकर उन्होंने देख लिया है। निश्चय ही अब उन्हें बेहतर विवेक का इस्तेमाल करना चाहिए। यहां उसकी आवश्यकता नहीं है कि वह एकाएक अकड़कर खड़े हो जाएं और प्रतिस्पर्धात्मक राजनीति की घोषणा कर दें, लेकिन यदि उनमें जरूरी राजनीतिक संवेदनशीलता है, तो उन्हें इतना तो समझ ही लेना चाहिए कि एशिया में कौन अमेरिका का सहयोगी हो सकता है, कौन प्रतिस्पर्धी। चीन अमेरिका का आर्थिक साझीदार बन सकता है, किन्तु रणनीतिक तौर पर वह उसका प्रतिस्पर्धी ही रहेगा। इसलिए उसे चीन के साथ सहयोग का संबंध अवश्य कायम करना चाहिए, लेकिन इसके लिए यह तो जरूरी नहीं कि वह एक हीन राष्ट्र की तरह उसके सामनेझुक जाएँ । (रविवार, 22 नवंबर 2009)

बीजिंग घोषणा-पत्र के साये में भारत-अमेरिका वार्ता

प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह अमेरिका की अपनी बहुचर्चित यात्रा पर आज सोमवार(२३ नवम्बर ) की सुबह (भारतीय समयानुसार) वहां पहुंच चुके हैं। यद्यपि अमेरिका में अभी यह रविवार की अपराह्न का समय रहेगा। वहां के मौसम विभाग की एक रोचक सूचना है कि उनके पहुंचने के अगले दिन यानी अमेरिकी सोमवार को राजधानी में वर्षा का मौसम रहेगा, फिर मंगलवार को चमकती धूप रहेगी, लेकिन अगले दिन यानी बुधवार फिर बादल और वर्षा का दिन रहेगा । यानी पूरे यात्राकाल में धूप-छांव का अच्छा खेल चलता रहेगा। अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति के पंडितों की नजर में यह मौसम भी भारत-अमेरिका संबंधों के बनते-बिगड़ते रूप को प्रतिबिंबित कर रहा है।
डॉ. सिंह अपनी चार दिन की इस यात्रा में करीब 90 से अधिक घंटे वाशिंगटन में बिताएंगे, फिर वहां से वापसी में त्रिनीदाद व टुबैगो की यात्रा पर जाएंगे। उनकी इस यात्रा में सबसे बड़ा घोषित एजेंडा परमाणु समझौते के कार्यान्वयन का है। प्रधानमंत्री की कोशिश है कि उनकी इस यात्रा पर इस पर हस्ताक्षर हो जाएं, लेकिन अभी अंतिम तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता। यद्यपि दोनों तरफ के अधिकारियों का ख्याल है कि दोनों देशों के संयुक्त वक्तव्य जारी होने के पहले सारे मतभेद दूर कर लिए जाएंगे। भारत के स्तर पर जो एक बड़ी बाधा थी, वह दूर कर ली गयी है। उसने भारत में स्थापित होने वाले अमेरिकी परमाणु संयंत्रों में दुर्घटना होने की स्थिति में मुआवजा देने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने का विधेयक संसद में पास कराने का निर्णय ले लिया है। प्रधानमंत्री के अमेरिका रवाना होने के पहले ही कैबिनेट ने उसे स्वीकृति दे दी है। असल में इस विधेयक के बिना अमेरिका बीमा कंपनियां इन परमाणु संयंत्र लगाने वाली अमेरिकी कंपनियों को बीमा सुविधा नहीं देंगी । अब अमेरिका को अपने पक्ष की बाधा दूर करनी है। वह बाधा है अमेरिका द्वारा आपूर्त परमाणु ईंधन के पुनर्संस्करण अधिकार की। आशा की जा रही है कि कुछ शर्तों के आधार पर अमेरिका यह अधिकार दे देगा। यदि ऐसा हो गया, तो प्रधानमंत्री की इसी यात्रा में समद्ब्राौते को अंतिम रूप प्रदान कर दिया जाएगा, अन्यथा इसे फिर और आगे के लिए टाला गया, तो इससे भारत-अमेरिकी संबंधों में थोड़ी खटास पैदा होगी।
भारत अभी भी अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की बीजिंग यात्रा के दौरान जारी संयुक्त विज्ञप्ति के आघात से उबरा नहीं है। यद्यपि उसे लेकर अमेरिका और चीन दोनों ने अपनी-अपनी तरफ से सफाई दी है। फिर भी उससे भारत को संतोष होने वाला नहीं है। भारत अपने को दक्षिण एशिया की एक प्रमुख शक्ति समद्ब्राता है, लेकिन उपर्युक्त संयुक्त विज्ञप्ति में आए उल्लेख से लगता है कि अमेरिकी दृष्टि में भारत का 'क्षेत्रीय शक्ति होने जैसा कोई दर्जा नहीं है। वह अभी भी कोई ऐसा देश है, जिसके आचरण व्यवहार को अमेरिका और चीन जैसे देश नियंत्रित करेंगे। भारत को इस मामले में चीन से कोई शिकायत नहीं है, लेकिन अमेरिका से अवश्य शिकायत है। यदि उसकी दृष्टि में भारत की इतनी भी स्वतंत्र हैसियत नहीं है कि वह अपने क्षेत्र की स्वयं जिम्मेदारी का व्यवहार कर सके, तो भला अमेरिका के साथ उसकी कोई दोस्ती कैसे हो सकती है।
इसलिए ओबामा के साथ बातचीत में भारत जरूर यह जानना चाहेगा कि वह भारत को उसकी किस हैसियत में अपना साझीदार बनाना चाहता है। अमेरिका चीन संयुक्त विज्ञप्ति में अफगानिस्तान व पाकिस्तान के साथ भारत का जिस तरह उल्लेख किया गया है, वह भारत के लिए बहुत अपमानजनक है। भारत इसके लिए अमेरिका को संदेह का लाभ तो दे सकता है कि वह नासमझी में या गफलत में वैसी शब्दावली पर हस्ताक्षर कर आए, लेकिन इसका भरोसे लायक स्पष्टीकरण उन्हें वाशिंगटन में देना होगा, अन्यथा दोनों देशों के बीच आगे जो भी संबंध होंगे, वे कच्चे ही रहेंगे। भले ही उन्हें दोनों पक्ष कितना ही महिमामंडित क्यों न करें।(२३-११-२००९)

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

ओबामा का 'शर्म -अल -शेख '

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की चीन यात्रा के दौरान चीनी राष्ट्रपति हू जिंताओ के साथ बातचीत के बाद दोनों नेताओं की तरफ से जो संयुक्त बयान जारी हुआ, उसे लेकर भारत के कूटनीतिक अधिकारी अवाक हैं। इसमें चीन को पूरे दक्षिण एशिया, यानी भारत, पाकिस्तान व अफगानिस्तान में महत्वपूर्ण कूटनीतिक भूमिका निभाने के लिए आमंत्रित किया गया है। इस अवसर पर प्रेस के सामने बोलते हुए हू जिंताओ ने यद्यपि भारत या पाकिस्तान का नाम नहीं लिया, किन्तु ओबामा ने स्पष्ट किया कि अमेरिका और चीन पूरे दक्षिण एशिया में स्थिर एवं शांतिपूर्ण संबंधों को कायम करने के लिए मिल कर काम करने पर सहमत हो गये हैं। वास्तव में यह भारत-पाकिस्तान व अफगानिस्तान के मामले में कूटनीतिक हस्तक्षेप करने का चीन को दिया गया खुला निमंत्रण है। आश्चर्य है कि ओबामा ने उस देश के मामले में चीन को हस्तक्षेप करने के लिए आमंत्रित किया है, जिसे वह एशियायी क्षेत्र में अपना सबसे बड़ा रणनीतिक साझीदार बताते हैं।
कहा जा रहा है कि संयुक्त वक्तव्य का प्रारूप बीजिंग स्थित उन अमेरिकी कूटनीतिक अधिकारियों ने तैयार किया है, जिनकी भारत के साथ कोई संवेदना नहीं है। ऐसा हो भी सकता है, लेकिन तब तो यह मानना पड़ेगा कि कूटनीतिक मामले में ओबामा भी अपने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की ही तरह लापरवाह हैं। मनमोहन सिंह ने शर्म-अल-शेख में जैसे पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के दबाव में आकर उस संयुक्त बयान को जारी करने की स्वीकृति दे दी, जो भारतीय हितों व स्वाभिमान के खिलाफ था और जिस पर देश के भीतर एक तरह का हंगामा ही खड़ा हो गयाथा । उसके बारे में भी कहा गया था कि संयुक्त बयान का प्रारूप पाकिस्तान के अधिकारी पहले से ही बनाकर लाए थे और उसे ही मामूली फेरबदल के बाद स्वीकार कर लिया गया। लगता है ऐसा ही कुछ यहां भी हुआ।
खैर, भारत को इसे लेकर बहुत परेशान होने की जरूरत नहीं है। कूटनीतिक जगत में ऐसा कुछ होता रहता था। निश्चय ही ओबामा ने भारी चीनी दबावों के कारण संयुक्त वक्तव्य की ऐसी शब्दावली को स्वीकार किया होगा। चीन अमेरिका का सबसे बड़ा ऋणदाता है। चीनी बाजार भी अमेरिका के लिए सबसे बड़ा बाजार है। लेकिन यह भी तय है क़ि ओबामा साहब चीन को खुश करने का जितना भी प्रयत्न कर लें, उनके बीच कभी कोई स्वाभाविक दोस्ती नहीं पनप सकती ।
उनकी चीन यात्रा के दौरान जारी यह संयुक्त विज्ञप्ति इस बात का भी प्रमाण है कि ओबामा साहब भाषण चाहे जितना अच्छा दे लें, किन्तु वे निर्णय लेने में कमजोर हैं। उनकी निर्णय लेने की अक्षमता का ही यह परिणाम है कि अमेरिका में भी उनकी लोकप्रियता का ग्राफ नीचे उतरता जा रहा है। भारत के लोगों को प्रतीक्षा करनी चाहिए डॉ. मनमोहन सिंह की अमेरिका की यात्रा का और उसके बाद जारी होने वाले संयुक्त वक्तव्य का। उसके उपरांत ही निर्णय किया जा सकता है कि दक्षिण एशिया के प्रति ओबामा का वास्तविक नजरिया क्या है और इसमें भारत को कितनी और कौनसी जगह हासिल है।

रविवार, 15 नवंबर 2009

अमेरिका, चीन और भारत के संबंधों का एक विश्लेषण

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अमेरिका और चीन आज दुनिया के दो सर्वाधिक श्क्तिशाली देश हैं। इन दोनों केअंतर्संबंध इतने जटिल हैं कि उनकी सरलता से व्याख्या नहीं की जा सकती। उनके बीच न कोई सांस्कृतिक संबंध है, न सैद्धांतिक, बस शुद्ध स्वार्थ का संबंध है। इसलिए न वे परस्पर शत्रु हैं, न मित्र। इनमें से एक भारत का पड़ोसी है, दूसरा एक नया-नया बना मित्र। पड़ोसी घोर विस्तारवादी व महत्वाकांक्षी है। ऐसे में भारत के पास एक ही विकल्प बचता है कि वह अमेरिका के साथ अपना गठबंधन मजबूत करे। यह गठबंधन चीन के खिलाफ नहीं होगा, क्योंकि अमेरिका भी न तो चीन से लड़ सकता है और लडऩा चाहता है। लेकिन चीन की बढ़ती शक्ति से आतंकित वह भी है और भारत भी। इसलिए ये दोनों मिलकर अपने हितों की रक्षा अवश्य कर सकते हैं, क्योंकि चीन कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो जाए, वह अमेरिका और भारत की संयुक्त शक्ति के पार कभी नहीं जा सकता।
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अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा इस समय चार एशियायी देशों- जापान, सिंगापुर, चीन और दक्षिण कोरिया की यात्रा परहैं । यात्रा के पहले चरण में 13 नवंबर को वह जापान पहुंचे। वहां से सिंगापुर जाएंगे, फिर सोमवार 16 नवंबर को बीजिंग पहुंचेंगे। यहां से दक्षिण कोरिया जाने का कार्यक्रम है। निश्चय ही इस श्रृंखला में ओबामा की चीन यात्रा सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
21वीं शताब्दी के लिए अमेरिका-चीन संबंधों को बहुत महत्वपूर्ण माना जा रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि विश्व का 21वीं शताब्दी का स्वरूप अमेरिका चीन संबंधों के स्वरूप पर निर्भर करेगा। भारत के लिए भी आज अमेरिका चीन संबंधों का बहुत महत्व है।
भारत का चीन के साथ संबंध इस समय शत्रुभाव की तरफ द्ब्राुका हुआ है, जबकि अमेरिका के साथ वह साघन मैत्री की तरफ बढ़ रहा है। दूसरी तरफ अमेरिका और चीन का संबंध न शत्रुतापूर्ण है न मित्रतापूर्ण। दोनों के आपसी संबंध बहुत ही जटिल ढंग से आपस में गुंथे हुए हैं और दोनों परस्पर प्रतिद्वंद्विता के रास्ते पर अग्रसर है। चीन और अमेरिका के आर्थिक संबंध शायद सर्वाधिक घनिष्ठ है, लेकिन अमेरिका की चिंता यह है कि उनका व्यापारिक संतुलन चीन की तरफ द्ब्राुका हुआ है। चीन अमेरिका का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है, लेकिन इसका सर्वाधिक लाभ भी चीन ही उठा रहा है। चीन अमेरिका का सबसे बड़ा साहूकार भी है। उसने काफी बड़ी रकम अमेरिका को कर्ज दे रखी है। इस व्यापारिक असंतुलन को सुधारने के लिए अमेरिका सर्वाधिक चिंतित है। इसी चिंतावश पिछले दिनों उसने चीनी इस्पात की पाइपों पर 99 प्रतिशत का आयात कर लगा दिया। उसने चीनी टायरों के आयात पर भी अंकुश लगाया है। चीन अपने माल से अमेरिकी बाजार को पाट रहा है, ससे अमेरिकी सरकार की चिंता बढऩा स्वाभाविक है, क्योंकि इसके कारण अमेरिकी उद्योग प्रभावित हो रहे हैं और युवाओं में बेरोजगारी बढ़ रही है। वस्तुत: अमेरिका में चीनी माल सस्ता पड़ता है, जिसके कारण अमेरिकी उपभोक्ता भी उसकी तरफ आकर्षित होते हैं।
वास्तव में चीनी माल के सस्ते होने के तीन बड़े कारण हैं। एक तो चीन में मजदूरी दर कम है। कोई श्रमिक कानून न होने के कारण कर्मचारी कम वेतन में अधिक घंटे काम करके अधिक उत्पादन करते हैं। जबर्दस्त मशीनीकरण का भी इसमें भारी योगदान है। दूसरे वहां कच्चामाल, खनिज, बिजली, पानी सस्ते दर पर उपलब्ध हैं। तीसरे चीन की सरकार ने जान-बूझ कर अपनी मुद्रा का मूल्य कम कर रखा है, जिससे निर्यात को बढ़ावा मिले। अब अमेरिका पहले दो कारणों को लेकर तो कुछ नहीं कर सकता, लेकिन वह चीन पर इसके लिए दबाव डाल सकता है कि वह अपनी मुद्रा का मूल्य बढ़ाए। चीन सामान्य स्थिति में तो अमेरिका की एक न सुनता, लेकिन वह जनता है कि उसके उत्पादित माल की सर्वाधिक खपत अमेरिका में होती है और यदि अमेरिका ने अपने बाजार उसके लिए बंद कर दिये तो उसे भारी व्यापारिक हानि उठानी पड़ सकती है, इसलिए वह अपनी मुद्रा का मूल्य कुछ बढ़ाने का निर्णय ले सकता है। वैसे यह मसला एकदम एकतरफा नहीं है। व्यापारिक संतुलन भले ही चीन के पक्ष में हो, लेकिन चीन अमेरिकी माल के लिए भी एक बहुत बड़ा बाजार है। आशय यह कि अमेरिका की चीन को जितनी जरूरत है उससे कम जरूरत अमेरिका को चीन की नहीं है। इसीलिए अपनी यात्रा के प्रथम चरण में जापान की राजधानी टोक्यो में बोलते हुए ओबामा ने कहा कि विश्व स्तर पर चीन की बढ़ती भूमिका पर अंकुश लगाने का कोई इरादा नहीं है। इसके विपरीत हम चीन की बड़ी भूमिका का स्वागत करते हैं। क्योंकि इस भूमिका में चीन की बढ़ती अर्थव्यवस्था के साथ-साथ उसकी जिम्मेदारियां भी जुड़ी हैं। एक समृद्ध व सशक्त चीन का आगे बढऩा पूरे विश्व के हित में हो सकता है। वास्तव में अमेरिका को चीन के सहयोग की जरूरत है, क्योंकि 21वीं सदी की चुनौतियों का कोई भी देश अकेले सामना नहीं कर सकता।
ओबामा का यह चीन पहुंचने पूर्व का बयान है। जाहिर है कि वह इस तरह के बयान के द्वारा चीन के साथ वार्ता की पृष्ठïभूमि तैयार कर रहे हैं। चीन वास्तव में एक नितांत संकीर्ण स्वार्थी देश है। उसने अब तक कोई वैश्विक भूमिका निभाने की तरफ कभी ध्यान नहीं दिया, न कभी इसकी महत्वाकांक्षा ही व्यक्त की। वह केवल अपनी आर्थिक व सामरिक शक्ति बढ़ाने की एकांत साधना में लगा रहा। अब इन दोनों क्षेत्रों में महाशक्तियों के समकक्ष स्थान पा लेने के बाद वह अपनी वैश्विक भूमिका की तरफ आगे बढ़ रहा है, लेकिन उसकी यह वैश्विक भूमिका भी नितांत उसकेआर्थिक व सामरिक हितों से नियंत्रित है। वह दूसरे देशों से संबंध बढ़ा रहा है तो केवल सस्ते कच्चेमाल तथा बाजार की तलाश में। वह यदि कुछ देशों के साथ सामरिक सहयोग कर रहा है तो केवल अपने प्रतिद्वंद्वियों को घेरने तथा अपने शक्ति विस्तार के लिए। उसने कभी मानवाधिकार, रंगभेद, आर्थिक विषमता आदि को विदेश नीति का आधार नहीं बनाया। लोकतंत्र का तो वह स्वयं अनुपालक नहीं है तो दुनिया की लोकतांत्रिक लड़ाई में वह क्यों कोई भाग लेता। उसने केवल अपने राष्ट्रीय हित को विदेश नीति का आधार बनाया। इसलिए उसने तमाम तानाशाही सरकारों के साथ अच्छे संबंध और उसका लाभ उठाया। वह कभी किसी न्याय की लड़ाई का दावा नहीं करता। म्यांमार में लोकतंत्र का दमन हो रहा है या नहीं इससे उसका कोई लेना देना नहीं। उसने वहां लोकतंत्र के विरुद्ध सैनिक 'जुंटा का समर्थन किया तो केवल इसलिए कि इससे उसे वहां के जंगलों की कीमती लकड़ी तथा कच्चा तेल सस्ते में मिल सकता है। इसी तरह का उसका संबंध पाकिस्तान व अन्य देशों के साथ चला आ रहा है। जबकि भारत का रवैया सदा इसके विपरीत रहा है।
सोवियत संघ के बिखरने के बाद दुनिया ने एक ध्रुवीय रूप धारण कर लिया और अमेरिका विश्व की एकमात्र महाशक्ति बन गया, लेकिन सोवियत संघ का भय खत्म होने के साथ ही अमेरिका के साथ मजबूरी में चिपके हुए देश भी अपने को स्वतंत्र महसूस करने लगे। इससे अमेरिका केभी वैश्विक प्रभुत्व में कमी आई। इस वातावरण में चीनी महत्वाकांक्षा का जगना स्वाभाविक था। अब वह बदली दुनिया में अमेरिका को पीछे छोड़कर स्वयं दुनिया की प्रथम महाशक्ति बनना चाहता है। इसके लिए उसने अपनी आर्थिक शक्ति का सर्वाधिक उपयोग करना शुरू किया। उसने एशियायी देशों पर ही नहीं अफ्रीकी व दक्षिण अमेरिकी देशों पर भी अपना प्रभाव विस्तार कार्यक्रम शुरू किया।
यह अमेरिका के लिए एक बड़ी चुनौती है। अमेरिका की प्रशांत क्षेत्र पर सोवियत काल से ही काफी मजबूत पकड़ बनी हुई थी। जापान, ताइवान, हांगकांग, दक्षिण कोरिया, थाईलैंड, इंडोनेशिया, फिलीपिन्स, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर ये सब उसके प्रभाव क्षेत्र वाले देश हैं। यद्यपि विभिन्न राजनीतिक कारणों से इन देशों पर अभी भी अमेरिकी वर्चस्व कायम है, लेकिन वह क्रमश: क्षीण हो रहा है। अब ओबामा के सामने सबसे बड़ा लक्ष्य है इस क्षेत्र पर अमेरिकी प्रभुत्व को बरकरार रखना।
जापान तो अमेरिकी क्षत्रछाया में ही पल रहा था। उसकी सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी अमेरिका पर ही है, लेकिन अब जापानी जनता भी चाहती है कि अमेरिका वहां से निकल जाए। जापान के ओकीनावा द्वीप पर अमेरिका का एक मजबूत सैनिक अड्डा था ,जो धीरे-धीरे उपेक्षित हो गया। अब अमेरिका फिर वहां एक श्क्तिशाली अड्डा कायम करना चाहता है तो जापानी उसका विरोध कर रहे हैं।
अमेरिका और चीन इस समय दुनिया को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले देश हैं। वे प्रतिस्पर्धी भी हैं और परस्पर निर्भर भी। चीन दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश है तो अमेरिका का स्थान चौथा है, चीन की जनसंख्या दुनिया में सर्वाधिक है तो इस दृष्टिï से अमेरिका का स्थान तीसरा है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, तो दूसरा स्थान चीन का है। ये दोनों देश ही खनिज ईंधन का सर्वाधिक उपयोग करने वाले देश हैं तो ग्रीन हाउस गैसें छोडऩे में भी ये ही दो शीर्ष स्थान पर हैं।
आज दुनिया की जो भी बड़ी समस्याएं हैं उनके समाधान की बात चीन के सहयोग के बिना सोची भी नहीं जा सकती। मामला चाहे पर्यावरण यानी ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव का हो या परमाणु अप्रसार का, विश्व अर्थव्यवस्था का हो या व्यापारिक संतुलन का हर मामले में अमेरिका को चीन की जरूरत है। परमाणु अप्रसार की अमेरिकी नीति को धता बताने में चीन की बड़ी भूमिका रही है। आज यह कोई रहस्य की बात नहीं कि पाकिस्तान को परमाणु बम बनाने की क्षमता चीन से मिली। अभी बीते हफ्ते की ताजा खबर है कि चीन ने दो परमाणु बम बनाने लायक संवर्धित यूरेनियम पाकिस्तान को दिया। ईरान का परमाणु कार्यक्रम हो या उत्तर कोरिया का, इनको चीनी सहायता के बिना नियंत्रित करना कठिन है। सुरक्षा परिषद में चीन के सहयोग के बिना ईरान या दक्षिण् कोरिया किसी के खिलाफ कोई प्रस्ताव पारित नहीं हो सकता। वैश्विक तापवृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) मामले में कार्बनिक गैसों के उत्सर्जन में कटौती के प्रश्न पर भी चीनी सहयोग आवश्यक है, क्योंकि ऐसी गैसों के उत्सर्जन में अमेरिका के बाद दूसरा स्थान चीन का ही है। यदि चीन अपने क्षेत्र में कोई कटौती योजना स्वीकार नहीं करता तो कोई भी दूसरा विकासशील देश इसके लिए तैयार नहीं होगा। अमेरिका का व्यापारिक घाटा चीन के साथ उसकी सीधे जुड़ी समस्या है।
ऐसा नहीं है कि ओबामा की इस यात्रा में कोई बड़ा फैसला हो जाएगा या चीन राष्ट्रपति ओबामा के सारे अनुरोधों को मान लेगा, लेकिन इस यात्रा में इन वैश्विक समस्याओं के प्रति चीन का रुख अवश्य स्पष्टï हो जाएगा। चीन अमेरिका के लिए या दुनिया के भविष्य के लिए अपनी महत्वाकांक्षा का मार्ग त्यागने वाला नहीं है, किन्तु वह अमेरिकी बाजार का अधिकतम उपयोग करने के लिए जितना आवश्यक होगा उतना परिवर्तन अवश्य स्वीकार कर लेगा। ओबामा निश्चय ही मानवाधिकारों के मसले भी उठाएंगे, लेकिन वह केवल खानापूरी की बात होगी, क्योंकि चीन मानवाधिकार के मसले को उस तरह कोई महत्व देता ही नहीं, जिस तरह दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक देश देते आ रहे हैं।
अब इसके साथ ही भारत की भूमिका भी सामने आएगी। इस महीने की 25 तारीख को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जब अमेरिका पहुंचेंगे तब ओबामा की इस करीब एक सप्ताह की एशियायी यात्रा की पृष्ठïभूमि में एशियायी मसलों पर बात हो सकेगी। चीन के बाद भारत एशिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है। आर्थिक विकास की दृष्टिï से वह चीन के बाद दुनिया में सर्वाधिक तीव्रगति से विकास करने वाला देश है। स्वाभाविक है एशिया में चीन का प्रतिस्पर्धी भारत ही है। चीन और भारत के बीच भी व्यापार तीव्रगति से बढ़ रहा है, किन्तु समस्या यहां भी वही है कि व्यापार संतुलन चीन के पक्ष में है। चीन से भारत को निर्यात अधिक है आयात कम। चीन के साथ भारत का सीमा विवाद भी दोनों देशों के बीच खटास का एक बड़ा कारण है। दक्षिण पूर्व एशियायी या प्रशांत सागरीय देशों केसाथ भारत के संबंध विस्तार में चीनी प्रभाव सबसे बड़ा अवरोध है। भारत की एक और बड़ी समस्या है। वह यह है कि, वह लगभग चारों तरफ से चीनी प्रभाव क्षेत्र से घिरा है। उत्तर की तरफ वह स्वयं है। बीच में स्थित नेपाल भौगोलिक दृष्टिï से भारत की गोद में होते हुए भी चीनी प्रभाव से अधिक संचालित होता है। बंगलादेश, म्यांमार, श्रीलंका, पाकिस्तान यानी हरतरफ चीनी उपस्थिति से भारत घिरा है। एशियायी क्षेत्र में कोई ऐसा और देश नहीं है जिस पर भारत भरोसा कर सके। मतलब यह है कि भारत के पास इसके अलावा और कोई चारा नहीं है कि वह अमेरिका के साथ अपने संबंधों को मजबूत करे और एशियायी क्षेत्र में उसके साथ मिलकर काम करे।
आज के समय में किसी समस्या के समाधान के लिए युद्ध के विकल्प को नहीं चुना जा सकता। मसला चाहे आर्थिक हो या राजनीतिक, सीमा विवाद का हो या व्यापारिक असंतुलन का, केवल कूटनीतिक उपायों से ही इनका समाधान ढूंढ़ा जा सकता है। लेकिन यह कूटनीति भी अपनी राजनीतिक व आर्थिक सामथ्र्य पर निर्भर है। इसलिए भी यह जरूरी है कि नई विश्व व्यवस्था में अमेरिका व भारत जैसे देश परस्पर सहयोग करें।
इस धरती पर अमेरिका, चीन और भारत ही नहीं, बल्कि सभी अन्य देशों के विकास के लिए पर्याप्त अवसर हैं। लेकिन यदि कोई देश किसी अन्य देश की कीमत पर विकास करना चाहे अथवा अपनी सामरिक व आर्थिक शक्ति से किसी की विकासगति को अवरुद्ध करना चाहे तो वहां उस देश पर अंकुश लगाना जरूरी हो जाता है। यह अंकुश बिना शक्ति के नहीं लग सकता। कल को हो सकता है कि चीन दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक या सामरिक शक्ति बन जाए, अमेरिका दूसरे स्थान पर आ जाए लेकिन यदि भारत और अमेरिका जैसे दो लोकतंत्र एक साथ रहे तो चीन कितना भी शक्तिशाली हो जाए, लेकिन वह भारत व अमेरिका की संयुक्त आर्थिक व सामरिक शक्ति को कभी पार नहीं कर सकता। इसलिए यह भविष्य की आवश्यकता है कि भारत और अमेरिका की मैत्री प्रगाढ़ हो।
यहां उल्लेखनीय है कि चीन के साथ भारत का राजनीतिक संबंध या आर्थिक संबंध 1950 के पूर्व नाममात्र का था लेकिन हमारे सांस्कृतिक संबंध हजारों वर्ष पुराने हैं। इसके विपरीत चीन और अमेरिका की परस्पर आर्थिक निर्भरता तब से है जब से अमेरिका और चीन का परस्पर परिचय हुआ लेकिन उनके बीच कोई सांस्कृतिक संबंध कभी विकसित नहीं हो सका। पुराने जमाने में द्विपक्षीय संबंधों के निर्वाह में प्राय: तीसरे की कोई जरूरत नहीं पड़ती थी, लेकिन आज की दुनिया में कोई संबंध नितांत द्विपक्षीय हो ही नहीं सकते।
हम पुराने भारत चीन संबंधों की बात करते हैं तो केवल सांस्कृतिक व व्यापारिक संबंधों की चर्चा करते हैं। व्यापारिक संबंधों में भी शायद चीन एकमात्र ऐसा देश था जिसके साथ हमारा व्यापार एकतरफा था। यानी हम चीन से कुछ मंगाते थे, लेकिन वहां भेजते कुछ नहीं थे। हमारे प्राचीन साहित्य चीनी रेशमी वस्त्रों (चीनांशुक) की चर्चा से भरे पड़े हैं। यह शायद चीनी रेशम की लोकप्रियता का प्रभाव था कि भारत व अरब को जाने वाले चीनी व्यापारिक मार्ग का नाम ही 'रेशमीपथ (सिल्क रूट) पड़ गया। लेकिन यह चीन के साथ हमारा कोई सीधा व्यापारिक संबंध नहीं। शायद व्यापारिक दलों के किसी तीसरे माध्यम से यह चीनी वस्त्र भारत आ जाया करता था। हां, चीन और भारत के बुद्धिजीवियों व बौद्ध आचार्यों का आना जाना अवश्य सामान्य था। चीन में शाओलिन के प्रसिद्ध बौद्ध केन्द्र की स्थापना भारत गये बातुओ (464-495 ए.डी.) बौद्ध संत द्वारा की गई। चीनी यात्री फाह्यान , ह्वेंत्सांग (इवान च्वांग), इत्सिंग आदि का नाम तो यहां परिचित है ही। चीन के 'चान व 'जेन मत के आचार्य भी भारत से गये। चीन के पुराने इतिहासज्ञ झान्ग्कियांग (113 बी.सी.)तथा सिमा कियान (145-90 बी.सी.) भारतीयों से परिचित थे। वे भी इन्हें 'सेन्धु का 'सिंधु से स्पष्ट संबंध देख सकते हैं। चीन से आज भी हमारा यह सांस्कृतिक या बौद्धिक संबंध बना रहता और कोई राजनीतिक द्वंद्व न खड़ा होता यदि बीच में तिब्बत का स्वतंत्र राष्ट्र बना रहता।
हमारी चीन के साथ सारी समस्या इसलिए खड़ी हो गई है कि इस तिब्बत पर चीन ने कब्जा कर लिया है और इसके साथ ही हमारी उत्तरी रक्षा प्राचीर (हिमालय की पर्वत श्र्रृंखला) भी चीन के कब्जे में चली गई। अब हमारी उत्तरी सीमा की रक्षा हिमालय से नहीं हमारे अपने शक्ति संतुलन से ही हो सकती है। अब यदि हमारी अकेली शक्ति इसके लिए काफी नहीं है तो हमें ऐसे गठबंधन बनाना चाहिए जिसकी संयुक्त शक्ति चीन की कुल शक्ति से अधिक हो।
अमेरिका और चीन का व्यापारिक संबंध बहुत पुराना है। चीन की वर्तमान उत्पादन व व्यापार की तकनीक भी कोई नई नहीं है। दूसरों की जरूरत समद्ब्राकर उनके लिए माल तैयार करना और उनके बाजार में छा जाना चीन का पुराना कौशल रहा है। अमेरिका के पहले लखपतियों की श्रृंखला उन्हीं की खड़ी हुई जो चीनी माल का व्यापार करते थे। 1784 में पहली बार चीन का एक व्यापारिक जहाज (इंप्रेस आफ चाइना) अमेरिका के कैंटम बंदरगाह पर उतरा था। इसके साथ ही चीन को एक शानदार बाजार मिल गया था। ऐसा नहीं कि अमेरिकियों व यूरोपियों ने भारत की तरह चीन पर कब्जा जमाने की कोशिश नहीं की लेकिन चीनी भारतीयों की तरह सहिष्णु और उदार नहीं थे। हमारे यहां कांग्रेस के गठन के करीब 14 वर्षों बाद 1899 में चीन एक संगठन बना जिसे अंग्रेज इतिहासकारों ने अंग्रेजी में 'सोसायटी आफ राइट एंड हार्मोनियस फिस्ट नाम दिया है। इस चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का पूर्व रूप कह सकते हैं। इसका लक्ष्य था देश से यूरोपीय विदेशियों व ईसाई मिशनरियों को मार भगाना। इन्हें अंग्रेजों ने 'विद्रोही बाक्सर(बाक्सर रिबेलियन) की भी संज्ञा दी है। इस संगठन के लोगों ने वर्ष 1900 में बीजिंग पर हमला बोल दिया और वहां स्थित यूरोपीय देशों के 230 कूटनीतिज्ञों (डिप्लोमेट्स) व्यापारिक अधिकारियों व मिशनरी नेताओं को मार डाला। उन्होंने उन चीनी नागरिकों पर भी हमला कर दिया जो ईसाई बन गये थे। हजारों की संख्या में ऐसे धर्मांतरित चीनी ईसाई मार डाले गये। ऐसे हमलों ने चीन के भीतरी हिस्सों में यूरोपियनों व अमेरिकियों के पांव उखाड़ दिये। वे केवल समुद्रतटीय इलाकों में ही यत्र-तत्र रह सके। इसीलिए चीन यूरोपियनों का गुलाम होने से बच गया।
खैर, ये सब तो इतिहास की बातें हैं और यह इतिहास बहुत पीछे छूट चुका है, लेकिन हम इतिहास से बहुत कुछ सीख सकते हैं। हमें अपने इतिहास से भी सबक सीखना चाहिए और दूसरों के इतिहास से भी। हमें अपने अहंकार में जीने के बजाए व्यावहारिक दृष्टिïकोण अपनाना चाहिए। हमें युद्ध के बारे में नहीं सोचना चाहिए किन्तु किसी भी तरह के युद्ध के खतरे के प्रति तैयार रहना चाहिए। यदि हमारा कोई पड़ोसी अधिक शक्तिशाली हो तो शांति से जीने के लिए एक शक्तिशाली मित्र मंडल बनाना चाहिए। हमें किसी दूसरे को दबाने की रणनीति नहीं अपनानी चाहिए लेकिन दूसरों के दबाव से बचने की रणनीति तो अवश्य अपनानी पड़ेगी, अन्यथा हम कुचल दिए जाएंगे।
भारत की चीन से कभी कोई निरपेक्ष मैत्री नहीं हो सकती, क्योंकि चीन एक विस्तारवादी देश है। एशिया में यदि शांति और शक्ति संतुलन को बनाए रखना है तो भारत और अमेरिका को एक मजबूत गठबंधन कायम करना ही होगा। आज की दुनिया में अमेरिका न तो अमेरिका तक सीमित रह कर जी सकता है, न भारत अपनी भारतीय सीमा में सीमित रह कर। इसलिए हमें एक ऐसी विश्व व्यवस्था कायम करने की जरूरत है जिसमें कोई भी देश बिना किसी दूसरे देश के मार्ग का रोड़ा बने विकास कर सके। ऐसा नहीं कि अमेरिका व यूरोप के देश बहुत दूध के धोए हैं। उन्होंने भी दूसरों की कीमत पर अपना विकास किया है। इसलिए उनको सीमा में रखने के लिए रूस और चीन जैसे देशों का विकास आवश्यक था। अब आज यदि चीन हमें दबाने की कोशिश कर रहा है तो हमें अमेरिका और यूरोप के साथ अपने रणनीतिक संबंध विकसित करने में गुरेज नहीं करना चाहिए। यही राजनीति का तकाजा है और यही समय की मांग भी है।
रविवार, 15 नवंबर २००९ (स्वतंत्र वार्ता -साप्ताहिकी )

रविवार, 8 नवंबर 2009

वंदे मातरम पर पुन: उठा विवाद

वंदे मातरम पर पुन: उठा विवाद
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देवबंद में हुए जमीयत उलेमाए हिन्द के तीसवें वार्षिक सम्मेलन में 'दारुल उलूम देवबंद के उस फतवे का सर्वसम्मति से समर्थन किया गया, जिसमें मुसलमानों का आह्वान किया गया है कि वे भारत का राष्ट् गीत 'वंदे मातरम न गाएं, क्योंकि ऐसा करना इस्लाम के खिलाफ है। ठीक है, उनके धर्म की यदि ऐसी व्यवस्था है, तो उसका सम्मान किया जाना चाहिए। लेकिन उन्हें भी तथाकथित बहुसंख्यकों की इस भावना का आदर करना चाहिए कि उसके लिए मां परमात्मा से भी ऊंचा स्थान रखती है। वह परमात्मा का परित्याग कर सकता है, मां का नहीं। उसके लिए यह पूरी प्रकृति मां है, धरती मां है, जीवन की सारी शक्तियां मां है। मां के बिना न उसका जीवन है, न राष्ट्र । यह इस देश की कितनी बड़ी विडंबना है कि हमने अपनी मातृवंदना को दरकिनार करके एक सम्राट की स्तुति में लिखे गये गीत को अपना राष्ट्र गान बना लिया है।
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बीते हफ्ते के मंगलवार (3 नवंबर 2009) को देवबंद (उत्तर प्रदेश) में आयोजित जमीयत उलेमाए हिन्द के वार्षिक सम्मेलन में बाकायदे एक प्रस्ताव पारित करके दारुल उलूम देवबंद द्वारा जारी किये गये उस फतवे का समर्थन किया गया, जिसमें मुसलमानों को आह्वान किया गया है कि वे वंदे मातरम का गान न करें, क्योंकि ऐसा करना इस्लाम के विश्वासों व सिद्धांतों के खिलाफ है। दारुल उलूम देवबंद मुसलमानों की एक अत्यंत प्रतिष्ठित संस्था है। प्रस्ताव में कहा गया है कि हम अपने देश को प्यार करते हैं, किन्तु उसको अल्लाह का दर्जा नहीं दे सकते। इन उलेमाओं का यह भी कहना है कि राष्ट्र को मां कहना और मातृभूमि के गीत गाना गैर इस्लामी है। इतना ही नहीं उपर्युक्त फतवे में यहां तक कहा गया है कि कोई भी गेय स्तुति इस्लाम के खिलाफ है। देश में 'वंदे मातरम के गायन का विरोध कोई नया नहीं है। इसका इतिहास बहुत बार दुहराया जा चुका है। 1937 में कुछ मुस्लिम नेताओं के विरोध पर कांग्रेस ने वंदे मातरम की व्याख्या के लिए एक कमेटी बनाई थी। इस कमेटी में रवीन्द्रनाथ टैगोर भी थे, जिन्होंने पहली बार इसकी धुन बनाई थी और 1905 के कांग्रेस अधिवेशन में इसे स्वयं गाया भी था। कमेटी ने इसके कुछ अंशों को हटाकर इसका एक सुधरा रूप प्रस्तुत किया, लेकिन यह विरोध थमा नहीं। इसके प्रथम दो पद जो आज राष्ट्र गीत के रूप में स्वीकृत हैं उनमें ऐसा कुछ नहीं है, जो किसी केखिलाफ हो, लेकिन इसका विरोध आज भी जारी है।वैसे मुस्लिम लीग ने तो 1908 से ही इसके खिलाफ आवाज उठानी शुरू कर दी थी। उस वर्ष सैयद इमाम की अध्यक्षता में हुए लीग के अधिवेशन में इसकी निन्दा की गई, क्योंकि इस में मातृभूमि को देवी की तरह प्रस्तुत किया गया है। कांग्रेस अधिवेशनों में यद्यपि 1915 से ही इस के गायन की परम्परा शुरू हो गयी थी । प्रख्यात गायक पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने यह परंपरा शुरू की थी। किन्तु मुस्लिम नेताओं के बीच इसका विरोध जारी रहा। कांग्रेस के 1923 के काकीनाडा अधिवेशन में तो जब पं. पलुस्कर वंदे मातरम का गायन करने के लिए उठे तो अधिवेशन की अध्यक्षता कर रहे मोहम्मद अली ने इसका विरोध किया, किन्तु पंडित जी ने उनकी एक नहीं सुनी और गीत गाना शुरू कर दिया। विरोधी आवाजों के बीच भी वह गीत पूरा करके ही बैठे। यद्यपि मुस्लिमों को संतुष्ट करने के लिए कांग्रेस ने 1922 से ही अपने अधिवेशनों में वंदे मातरम के साथ मोहम्मद इकबाल के गीत 'सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा... को गवाना शुरू कर दिया था, लेकिन वे इससे संतुष्ट नहीं थे। वे चाहते थे कि वंदे मातरम को पूरी तरह हटाकर उसकी जगह इकबाल के गीत को दे दी जाए। इसी लगातार विरोध के चलते 1937 में कांग्रेस ने वंदे मातरम गीत की समीक्षा करके उसका केवल दो पद ही गायन के लिए स्वीकृत किया, मगर मुस्लिम इसके लिए भी तैयार नहीं हुए। ऑल इंडिया मुस्लिम लीग ने तो एक प्रस्ताव पारित करके इस गीत का विरोध किया। 1938 में तोमोहम्मद अली जिन्ना ने नेहरू के सामने बाकायदा अपनी यह मांग पेश की कि इस गीत को पूरी तरह हटा दिया जाए। संगठन के अन्य मुस्लिम नेताओं की भी यही राय थी। अंतत: कांग्रेस ने मुसलमानों को संतुष्ट करने का यह फार्मूला निकाला कि उन्हें अधिवेशनों में कुरान की आयतें पढऩे और ईसाइयों को अंग्रेजी में एक प्रार्थना प्रस्तुत करने की सुविधा दे दी । तुष्टीकरण की पराकाष्ठा तब सामने आई जब देश स्वतंत्र हुआ और यह तय करने की जरूरत पड़ी कि इस देश का 'राष्ट्र गान क्या हो। 'वंदे मातरम इसका निर्विवाद उत्तर था। वह गीत जो पूरे देश के स्वातंत्र्य अभियान का प्रयाण गीत था। जिसे गाते-गाते सैकड़ों जवानों ने अंग्रेजों की गोली खाई थी, जाने कितने फांसी के फंदों पर चढ़ गये थे। इस गीत को गाते हुए लाठियां खाने वालों की तो गिनती ही नहीं की जा सकती। ऐसे गीत को छोड़कर दूसरा कोई गीत स्वतंत्र भारत का राष्ट्र गान (नेशनल ऐंथेम) हो भी कैसे सकता था। लेकिन मुस्लिम विरोध यहां भी रंग लाया। नेहरू ने तय किया कि कोई दूसरा गीत ही राष्ट्रीयगीत के लिए चुना जाए। वह सीधे यह नहीं कर सकते थे कि मुसलमानों के विरोध के कारण वे इसे बदलना चाहते हैं इसलिए उन्होंने बहाना बनाया कि यह गीत वैसे तो ठीक है, लेकिन आर्केस्ट्रा पर इसकी धुन जरा ठीक से नहीं जमती। इस पर पूना के एक देशभक्त संगीतकार मास्टर कृष्णराव रामचन्द्र फुलुम्बिकर ने इस बात को चुनौती दी और उन्होंने आर्केस्ट्रा पर इसकी शानदार धुन तैयार की। इस पर नेहरू का कहना था कि उन्हें भारतीय आर्केस्ट्रा पर नहीं, बल्कि ब्रिटिश बैंड पर इसकी धुन चाहिए। ब्रिटिश बैंड के विशेषज्ञ जब तक अपनी स्वीकृति नहीं देंगे तब तक इसे राष्ट्र गान के लिए स्वीकार नहीं किया जाएगा। इस पर मास्टर रामचंद्र बाम्बे (मुंबई) गये और ब्रिटिश बैंड के कमांडर सी.आर. गॉर्डन की मदद से ब्रिटिश बैंड के संगीत के अनुसार 'वंदे मातरम की धुन तैयार की। लेकिन ये सारे प्रयास व्यर्थ रहे, क्योंकि वंदे मातरम की धुन ब्रिटिश बैंड पर अच्छी नहीं जमती यह मात्र बहाना था। इसे देश के प्रतीक स्वरूप राष्ट्र गान के रूप में स्वीकार न किये जाने का असली कारण मुस्लिम विरोध था। अभी संविधान सभा में राष्ट्र गान के बारे में कोई औपचारिक निर्णय नहीं लिया गया था, लेकिन पं. नेहरू ने 'जन गण मनको राष्ट्र गीत के रूप में चुन लिया था। उन्होंने यह भी घोषित कर दिया था कि ब्रिटिश बैंड पर इसकी धुन बहुत शानदार है। इतना ही नहीं 1947 के संयुक्त राष्टï्रसंघ के सम्मेलन में 'जन गण मन की धुन को बजा भी दिया गया। लोगों को यह जानकर शायद आश्चर्य हो कि राष्ट्र गान (नेशनल ऐंथेम) का निर्णय संविधान सभा के ऊपर भी नहीं छोड़ा गया। इस सवाल को औपचारिक रूप से न तो विचार के लिए वहां लाया गया न कोई वहां निर्णय ही हो सका, बल्कि संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा में एक बयान पढ़कर सुनाया, जिसमें कहा गया था कि 'जन गण मन राष्ट्र का प्रतिनिधि गीत (नेशनल ऐंथेम) होगा और वंदे मातरम का भी समान दर्जा रहेगा। वंदे मातरम को समान दर्जा देने की बात कुछ वैसी ही रही जैसे हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया और भारत को भी 'इंडिया का पर्याय बता दिया गया सबसे बड़ा सवाल यह है कि वंदे मातरम का इस तरह का विरोध क्यों? क्या मुस्लिम समुदाय के विरोध का कारण वही है, जो दारुल उलूम देवबंद के फतवे में बताया गया है। वंदे मातरम गीत में मातृभूमि को कोई ईश्वर या ब्रह्म (परमात्मा या गॉड) तो नहीं बताया गया है। न उसे सृष्टि का कर्ता या रचयिता बताया गया है। न उसकी पूजा या उपासना की कोई बात की गई है। 'वंदे शब्द का अंग्रेजी पर्याय 'प्रेयर (प्रार्थना) अवश्य होता है, लेकिन यह कोई प्रार्थना गीत नहीं, बल्कि मात्र एक प्रशंसा गीत है। किसी की प्रशंसा करना या प्रशंसा के गीत गाना, इस्लाम में भी निषिद्ध नहीं है। पैगंबर मुहम्मद, इमाम हुसैन तथा तमाम सूफी संतों की प्रशंसा में असंख्य गीत गाये जाते हैं। दरगाहों में उर्स के दौरान या मोहर्रम के समय इमामबाडों में ऐसे गीत कोई भी सुन सकता है। जाहिर है कि 'वंदे मातरम के गायन का विरोध फतवे में बताए गये कारणों पर नहीं बल्कि कुछ अन्य कारणों पर आधारित है।यह गीत वास्तव में बंकिम चंद्र चटर्जी के उपन्यास आनन्द मठ से जुड़ गया है। यद्यपि गीत का इतिहास बताता है कि इसकी रचना उपर्युक्त उपन्यास के प्रकाशन के करीब एक दशक पहले हो गयी थी। यह एक स्वतंत्र गीत था, जो मातृभूमि को समर्पित था और सच कहें तो यह एक सर्वथा सेकुलर गीत है। इसमें भारत मां को दुर्गा देवी या काली नहीं बनाया गया है, बल्कि दुर्गा या काली का भी मातृभूमि में लय कर दिया गया है। कहा गया है कि मां तुम्ही दुर्गा हो तुम्ही काली हो तुम्ही सर्वदेव स्वरूपा हो। अब इस उपन्यास में चूंकि मुस्लिम नवाब-जमींदारों का विरोध है, इसलिए मुस्लिम समुदाय इस उपन्यास के साथ इस गीत को भी अपने खिलाफ समझता है।यदि इसके विरोध के वही कारण है, जो फतवे में बताए गये हैं, तो मुसलमानों को सबसे पहले जन गण मन का विरोध करना चाहिए। यह गीत तो किसी भी तरह इस देश का राष्ट्र गीत बनने लायक नहीं था। आश्चर्य है कि इसका विरोध न इस देश के हिन्दुओं ने किया न मुसलमानों ने। इसकी पवित्रता और राष्ट्रीयता इस बात से सिद्ध हो गई कि यह गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचना है। लेकिन यह सच्चाई है कि यह गीत न तो देश की वंदना में लिखा गया है न परमात्मा की। यह जार्ज पंचम के भारत आगमन के अवसर पर उनकी अभ्यर्थना में लिखा गया गीत को लेकर भी विवाद उसी समय खड़ा हो गया था, जब टैगोर ने इसे पहली बार गाया था। अंग्रेज सम्राट और साम्राज्ञी की अभ्यर्थना में गाये गये इस गीत का विरोध होना ही था। तो इसकी लीपापोती शुरू की गई। कहा गया, नहीं यह सम्राट की प्रशंसा में नहीं लिखा गया, बल्कि परमात्मा को संबोधित करके लिखा गया। लेकिन इस गीत को पढऩे वाला कोई भी समझ सकता है कि इसे किसके लिए लिखा गया और किसके लिए पढ़ा गया। ऐतिहासिक दस्तावेज भी यही सिद्ध करते हैं कि यह जार्ज पंचम की प्रशस्ति में लिखा गया। फिर भी तमाम लेखक अभी तक यह सिद्ध करने में लगे हैं कि यह गीत जार्ज पंचम की प्रशस्ति में नहीं लिखा गया। इसके लिए बहुत से लोग स्वयं ठाकुर रवीन्द्रनाथ द्वारा पुलिन बिहारी बोस को लिखे गये एक पत्र को उद्ध्रित करते हैं, जिसमें उन्होंने यह सफाई देने की कोशिश की है कि यह गीत उन्होंने ईश्वर के नाम पर लिखा है न कि सम्राट के नाम पर । पर ध्यान देने की बात है कि यह पत्र लिखने की उन्हें जरूरत क्यों पड़ी। वास्तव में उस समय उनके इस गीत के लिए चारों तरफ उनकी बहुत आलोचना हो रही थी। आमतौर पर हम यह विश्वास करते हैं कि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ जैसा व्यक्ति कोई असत्य या अर्धसत्य कैसे बोल या लिख सकता है, लेकिन सच्चाई यह है कि बड़े लोगों को अपनी छवि की चिंता सामान्य लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक होती है। इसलिए छवि रक्षा के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। यदि धर्मराज युधिष्ठिïर युद्ध में विजय के लिए अर्धसत्य का सहारा ले सकते हैं, तो ठाकुर अपनी छवि बचाने के लिए किसी आलोचक को यह क्यों नहीं लिख सकते कि यह जार्ज के लिए नहीं, बल्कि भगवान के लिए लिखा गीत था। बंगला न समझने वाला देश उनकी इस बात का विश्वास कर लेगा।अब जरा उन साक्ष्यों को देखें जो यह सिद्ध करते हैं कि =जन गण मन= गीत जार्ज पंचम के स्तुतिगान के रूप में लिखा गया। गुरुदेव स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि सम्राट के आगमन के अवसर पर एक सरकारी अधिकारी ने उनसे सम्राट की प्रशंसा में एक गीत लिखने को कहा था। उन्होंने ऐसा गीत लिखने से इनकार नहीं किया था। अब आगे का कथाक्रम देखें-यह गीत 1911 में लिखा गया। यह वही वर्ष था, जिस वर्ष जार्ज पंचम अपनी महारानी के साथ भारत आए और यहां पर उनके राज्याभिषेक का दरबार सजा। यह भारत के ब्रिटिश इतिहास की एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना थी। ठाकुर रवीन्द्रनाथ ने 27 दिसम्बर 1911 के कांग्रेस की महासभा में पहली बार यह गीत प्रस्तुत किया। अधिवेशन का यह दूसरा दिन था जो सम्राट के अभिनंदन के लिए समर्पित था। इस दिन का केवल एक एजेंडा (कार्यक्रम) था सम्राट के सम्मान में प्रस्ताव पारित करना। उसी दिन रवीन्द्रनाथ ने यह बंगला गीत प्रस्तुत किया। उस दिन सम्राट के सम्मान में एक हिन्दी गीत भी प्रस्तुत किया गया, जिसे रामभुज चौधरी द्वारा गाया गया। लेकिन अखबारों में ठाकुर के अभिनंदन गीत की ही चर्चा रही।28 दिसम्बर के स्टेट्समन में खबर छपी 'बंगला कवि बाबू रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सम्राट के स्वागत में विशेष रूप से रचित अपना गीत प्रस्तुत किया (द बंगाली पोयट बाबू रवींद्रनाथ टैगोर सैंग ए सांग कंपोज्ड बाई हिम स्पेशली टु वेलकम द इम्परर)। इसी तरह 'इंग्लिश मैन समाचार पत्र ने लिखा - कांग्रेस की कार्रवाई बाबू रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा प्रस्तुत गीत के साथ शुरू हुई जिसे उन्होंने सम्राट के सम्मान में विशेष रूप से लिखा है। (द प्रोसीडिंग बिगैन विद द सिंगिंग बाई बाबू रवीन्द्रनाथ टैगोर ऑफ ए सांग स्पेशली कम्पोज्ड बाई हिम इन आनर ऑफ द इम्परर)। एक और अंग्रेजी दैनिक 'इंडियन ने लिखा, 'बुधवार 27 दिसंबर 1911 को जब राष्ट्रीय कोंग्रेस की कार्रवाई शुरू हुई तो सम्राट के स्वागत में एक बंगाली गीत गाया गया। सम्राट और साम्राज्ञी का स्वागत करते हुए सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव भी पारित किया गया (व्हेन द प्रोसीडिंग ऑफ द नेशनल कांग्रेस बिगैन आन द वेडनेसडे 27थ डिसेम्बर 1911, ए बेंगाली सांग इन वेलकम ऑफ द इम्परर वाज संग ए रिजोल्यूशन वेलकमिंग द इम्परर एंड इम्प्रेस वाज आल्सो इडाप्टेड एनानिमसली)।वास्तव में 1911 की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, अंग्रेज सरकार के प्रति वफादार भारतीयों का ही संगठन था। इसिलए यदि उस समय कांग्रेस ने सम्राट के अभिनंदन में प्रस्ताव पारित किया अथवा रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उनकी प्रशंसा में गीत गाया तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। आश्चर्य की बात तो यह है कि देश जब स्वतंत्र हुआ तो इस अंग्रेज महाप्रभु की प्रशस्ति में लिखे हुए गीत को इस स्वतंत्र राष्ट्र का प्रतीक गीत बना दिया 1911 के बाद यह गीत बहुत दिनों तक ब्रह्म समाज की पत्रिका 'तत्वबोध प्रकाशिका के पन्नों में ही पड़ा रहा। टैगोर स्वयं इस पत्रिका के संपादक थे। =गीतांजलि=-जिसे नोबेल पुरस्कार मिला- में भी यह गीत शामिल किया गया, लेकिन स्वातंत्र्य आंदोलन या देश के जागरण अभियान में कहीं भूलकर भी किसी ने इसे याद नहीं किया। यदि यह देश गीत होता, तो इसकी इस तरह उपेक्षा नहीं हो सकती थी। यदि हम इसे थोड़ी देर के लिए ईश प्रार्थना ही मान लें, तो भी भारत जैसे सेकुलर देश का राष्ट्र गीत बनने लायक यह गीत नहीं था। अब बेहतर यह है कि स्वयं इस गीत की समीक्षा कर ली जाए। सारी टिप्पणियों को दरकिनार करके पाठक स्वयं अपने विवेक से यह निर्णय ले सकते हैं कि यह गीत किसके लिए लिखा गया। पांच पदों का यह पूरा गीत निम्रवत है-(1) जन-गण-मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता पंजाब सिंधु गुजरात मराठा द्राविड उत्कल बंगाविन्ध्य हिमाचल यमुना गंगा उच्छल जलधि तरंगा तव शुभ नाम जागे, तव शुभ आशिश मांगे. गाहे तव जय गाथा जन गण, मंगल दायक जय हे, भारत भाग्य विधाताजय हे, जय हे, जय हे. जय, जय, जय, जय हे (2)अहरह तव आह्वान प्रचारित सुनि तव उदार वाणी . हिंदू बौद्ध सिख जैन पारसिक ,मुसलमान , क्रिस्तानी पूरब, पश्चिम आसे , तव सिंहासन पासेप्रेम हार हवे गाथा जन -गण, ऐक्य विधायक जय हे , भारत भाग्य विधाता जय हे , जय हे, जय हे. जय, जय, जय, जय हे (3)पतन अभ्युदय बंधुर पन्था ,युग युग धावित यात्री हे ! चिर सारथि तव रथ चक्रे मुखरित पथ दिन रात्री . दारुण बिप्लव मांझे , तव शंखध्वनि बाजे ,संकट दु: त्राता जन गण पथ परिचायक जय हेभारत भाग्य विधाता जय हे, जय हे, जय हे. जय, जय, जय, जय हे।(4)घोर तिमिर घन निबिण निशीथे पीड़ित , मूर्छित देसे छिलो तव अविचल मंगल नत नयने अनिमेशेदुह्स्वपने आतंके रक्षा करिले अंकेस्नेह मई तुमि माता जन गण दु: त्रायक जय हे ,भारत भाग्य विधाता जय हे, जय हे, जय हे।जय , जय , जय , जय हे (5)रात्रि प्रभावित उदिल रविच्छवि पूर्व उदय गिरि भाले गाहे विहंगम पुन्य समीरण नव जीवन रस ढाले तव करुणारुण रागे, निद्रित भारत जागे जय , जय, जय हे जय राजेश्वर भारत भाग्य विधाता जय हे, जय हे, जय हे।जय, जय, जय, जय हे।अब कांग्रेस के अधिवेशन का जो दिन सम्राट के अभिनन्दन के लिए नियत हो उस दिन की कार्रवाई की शुरुआत सम्राट की प्रशंसा में लिखित गीत से भिन्न किसी दूसरे गीत से कैसे हो सकती है। यहां बहुत साफ ढंग से प्रकट है कि यह 'भारत भाग्य विधाता कौन है। गीत रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसा व्यक्ति लिख रहा हो, तो वह सस्ते कवियों की तरह प्रत्यक्ष प्रशंसापरक नहीं हो सकता। उसमें कलात्मक अर्थछटा होनी ही चाहिए, लेकिन पूरा गीत अपनी कहानी स्वयं कहने में समर्थ है। यदि पूरी कविता के प्रथम चार पदों में कोई भ्रम रह भी जाता हो, तो वह अंतिम पद में दूर हो जाता है। 1911 के दिसंबर महीने में सम्राट के अभिषेकोत्सव के अतिरिक्त ऐसा कुछ भी घटित नहीं हुआ था, जिसकी अभिशंसा में कवि कहता 'अब रात बीत गई है, पूर्व में प्रभात का सूर्य उदित हो रहा है, चिडिय़ा गा रही है और पून्य समीरण प्रवाहित हो रहा है और नया जीवन रस ढल रहा है। देश में उस समय ऐसा क्या हो गया था कि यह कवि हर्षातिरेक में प्रकृति का उत्सव गान करने लगा। अंतिम पंक्ति पूरा रहस्य खोल देती है। 'जय, जय, जय हे जय राजेश्वर का राजेश्वर शब्द शुद्ध रूप से 'इम्परर के लिए ही आया। इसमें शायद ही कोई संदेह करने की धृष्टïता करे।कैसी विडम्बना है कि यह देश मातृभूमि की वंदना बर्दाश्त नहीं कर सकता, किन्तु वह उस सम्राट की प्रशस्ति को अपना राष्टï्रगान बना सकता है, जिसने उसे गुलामी के जुए में कस रखा था। इस देश को इसमें कोई आश्चर्य नहीं। जो देश, स्वतंत्रता प्राप्ति के अगले ही क्षण, ब्रिटिश क्राउन के उसी प्रतिनिधि को अपना सर्वोच्च शासक (गवर्नर जनरल) बना सकता है, जिससे उसने स्वतंत्रता हासिल की वह देश ऐसा कुछ भी कर सकता है।इस देश में उद्धव ठाकरे या राज ठाकरे की बात का समर्थन नहीं किया जा सकता ,लेकिन इसका भी समर्थन नहीं किया जा सकता कि बहुसंख्यकों को उनके ऐतिहासिक व सांस्कृतिक प्रेरणा प्रतीकों से वंचित कर दिया जाए, आज जो लोग 'जन गण मन का राष्ट्र गान (नेशनल ऐंथेम) के लायक नहीं समद्ब्राते वे भी उसके गायन के समय खड़े होकर उसके प्रति सम्मान व्यक्त करते हैं, क्योंकि वह जैसा भी है राष्ट्र का प्रतीक है। 'वंदे मातरम को जन गण मन के समान स्तर का संवैधानिक दर्जा प्राप्त है। इसलिए संविधान से जब तक वह व्यवस्था नहीं हटाई जाती तब तक उसे भी 'जन गण मन के समान ही सम्मान देना होगा। मुसलमान अपनी धार्मिक बाध्यता के कारण 'वंदे मातरम नहीं गाना चाहते तो न गाएं, लेकिन जहां वह गाया जा रहा हो वहां उसे सम्मान तो देना ही पड़ेगा। ऐसा तो नहीं होना चाहिए कि उनकी नापसंदगी के कारण स्कूल कॉलेजों में उसका गायन ही बंद करा दिया जाए।मुसलमान ही नहीं देश के किसी नागरिक को इसके लिए बाध्य नहीं किया जा सकता कि वह किसी राष्ट्रीय प्रतीक का सम्मान अवश्य करे। सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह व्यवस्था दी है कि किसी को राष्टï्रगान या राष्टï्रगीत गाने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। बात सही है, लेकिन एक छोटे वर्ग को इसका क्या हक है वह देश के एक बहुसंख्यक वर्ग की सम्पूर्ण सांस्कृतिक व दार्शनिक अस्मिता की बलि चढ़ाने की कोशिश करे।निश्चय ही एक सेकुलर राष्टï्र का तकाजा है कि उसमें अल्पसंख्यकों की भावनाओं का सम्मान किया जाए। किन्तु इसके साथ ही उसमें यह भी निहित है कि अल्पसंख्यक भी बहुसंख्यकों की भावनाओं का आदर करें। आदर न भी करें तो कम से कम उसे आहत करने की कोशिश तो न करें। मातृवंदना भारतीय संस्कृति का आधार भूत तत्व है। 'माता भूमि : पुत्रोहं पृथिव्या: यहां की सामाजिक भावना का मूलाधार है। हम ईश्वर को नकार सकते हैं, प्रकृति को नहीं, क्योंकि प्रकृति मां है, धरती मां है, जो हमें जीवन देती है, हमारा पालन करती है। हमारे लिए वह किसी परमात्मा या गॉड से बड़ी है। हम उसकी अभ्यर्थना नहीं छोड़ सकते। आप न करना चाहें, न करें आपकी मर्जी लेकिन हमारी जिंदगी को अपने ढंग में ढालने की कोशिश तो न करें।

शनिवार, 7 नवंबर 2009

हिंदी पत्रकारिता के एक प्रतीक पुरुष का अवसान

प्रभाष जोशी आज की हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में नैतिकता, आदर्श तथा प्रतिबद्धता के एक प्रतीक पुरुष थे। स्वभाव से गांधीवादी लेकिन चिंतन से समाजवादी जोशी जी ने हिंदी पत्रकारिता को एक नई भाषा, एक नई शैली और एक नया तेवर देने के साथ एक नया सामाजिक आयाम भी दिया था। उनकी नैतिकता के प्रति निष्ठा व सच्चाई के प्रति दृढ़ता आज की पत्रकारिता में अत्यंत दुर्लभ है। उन्होंने पत्रकारिता केसर्वश्रेष्ठ मूल्यों को जीने की कोशिश की, उनके साथ कभी कोई समझौता नहीं किया।पत्रकारिता के साथ-साथ उनकी खेलों तथा शास्त्रीय संगीत में गहरी रुचि थी। क्रिकेट के साथ तो उन्हें जुनून के स्तर तक लगाव था। वह भीतर से एक अत्यंत जुनूनी खिलाड़ी थे। उन्होंने स्वयं कभी कोई खेल खेला या नहीं यह नहीं पता, लेकिन वह खेल शास्त्र के पंडित थे। खेलों का विश्लेषण वह किसी राजनीतिक विश्लेषण से कम गंभीरता से नहीं करते थे। इसी तरह शास्त्रीय संगीत के भी वह असाधारण प्रेमी थे। यात्राओं के दौरान प्राय: हर समय उनका टेप रिकार्डर साथ रहता था और साथ में रहते थे उनके प्रिय गायकों के कैसेट।प्रभाष जोशी के व्यक्तित्व की एक असाधारण बात यह भी थी कि वह एक अद्ïभुत श्रोता थे। अपनी ओर से अधिक बोलना उनकी आदत में कभी नहीं था। वे किसी की भी पूरी बात ध्यान से सुनते थे और फिर जरूरी होने पर ही अपनी राय देते थे। उनका यह गुण उनकी पत्रकारिता में भी मुखर था। उन्होंने अपने स्तर पर पाठकों को अपने अखबार से जोडऩे की जितनी और जैसी कोशिश की वैसी शायद ही किसी ने कभी की हो। 1983 में उन्होंने जब जनसत्ता शुरू किया, तो उसका शायद सर्वाधिक लोकप्रिय स्तम्भ चौपाल था, जो पाठकों के पत्र का कॉलम था। शुरू में इन पत्रों का चयन व संपादन वे स्वयं करते थे।प्रभाष जी किसी राजनीतिक दल की तरफ कभी नहीं द्ब्राुके। भारतीयता और भारतीय संस्कृति के प्रति निष्ठा के कारण प्राय: उन्हें लोग दक्षिणपंथी करार दिया करते थे, लेकिन वह इन भावनाओं की राजनीति करने वालों के साथ कभी नहीं रहे। उनकी विशिष्टता थी जीवन के प्रति एक समग्र दृष्टि। जनसत्ता में नियमित प्रकाशित होने वाला उनका साप्ताहिक स्तम्भ 'कागदकारे इसका प्रमाण रहा है। मुद्दा राजनीति का हो या समाज का, उनसे असहमत रहने वालों की कभी कमी नहीं रही, लेकिन कभी किसी ने उनकी समाज निष्ठïा या राजनीतिक ईमानदारी पर उंगली नहीं उठाई। जनसत्ता से संपादक के रूप में सेवा मुक्त होने के बाद भी वे अंत तक उसके सलाहकार संपादक बने रहे और उनका 'कागदकारेस्तम्भ प्रकाशित होता रहा, लेकिन 1995 में सेवानिवृत्ति केबाद उनके पत्रकार जीवन में एक नया आयाम जुड़ा टीवी विश्लेषक का। टीवी चैनलों पर राजनीतिक व सामाजिक विश्लेषक के तौर पर उन्होंने एक अलग ही पहचान बनायी। बिना किसी लाग लपेट के दो टूक टिप्पणी का उनमें साहस भी था और कौशल भी।उनका निधन भी एक अजीब क्षण में हुआ। ऐसा लगता है कि क्रिकेट का असाधारण 'पैशन ही उनकी जान का गाहक बन गया। भारत-आस्ट्रेलिया का हैदराबाद में हो रहा मैच अभी खत्म ही हुआ था कि उन्हें सीने में कुछ दर्द सा उठता महसूस हुआ और जब तक अस्पताल पहुंचते, कालचक्र ने उन्हें अपने आगोश में ले लिया था। जोशी जी अब नहीं है, लेकिन हिंदी पत्रकारिता शायद अपने इस अत्यंत मनस्वी व्यक्तित्व को कभी भुला नहीं सकेगी।

बुधवार, 4 नवंबर 2009

अपने देशी आतंकवादियों से चिंतित अमेरिका

अमेरिका इस्लामी आतंकवाद के खतरे से बचने के लिए अफगानिस्तान में लंबा युद्ध लड़ रहा है, लेकिन अब वह उन अपने ही नागरिकों को लेकर चिंतित है, जो जिहादी दीक्षा लेकर आतंकवादी हमले करने के लिए तैयार हो रहे हैं। पिछले दिनों ऐसे ही एक अमेरिकी नागरिक डेविड कोलमैन हेडले को पकड़ा गया, जो भारत और डेनमार्क में एक बड़े आतंकवादी हमले की योजना बना रहा था। वह भारत स्थित लश्कर-ए-तैयबा से संबद्ध था तथा इसने पाकिस्तान में प्रशिक्षण प्राप्त किया था। हेडले ऐसा अकेला नहीं है। अमेरिका की संघीय गुप्तचर एजेंसी (एफ.बी.आई. यानी फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन) ने गत दो महीनों में 4 बड़े आतंकवादी षड्यंत्रों का पर्दाफाश किया और उनके सूत्रधारों को गिरफ्तार किया। ये सभी अमेरिकी नागरिक थे, लेकिन उनके अलकायदा अथवा अन्य जिहादी संगठनों से भी संबंध थे तथा उन्होंने पाकिस्तान व अफगानिस्तान में प्रशिक्षण प्राप्त किया था।अमेरिका की घरेलू सुरक्षा तथा सरकारी मामलों की कमेटी के चेयरमैन ने अपने नागरिकों के आतंकवादी बनने पर गहरी चिंता व्यक्त की है। उन्हें सर्वाधिक आश्चर्य इस बात पर है कि अलकायदा व अन्य जिहादी संगठनों ने देश में इतनी गहरी घुसपैठ कैसे बना ली। ऐसा लगता है कि अमेरिकी सुरक्षा तंत्र अब तक इस बात को नहीं समझ सका है कि अफगानिस्तान की लड़ाई केवल किसी एक संगठन या एक देश के कुछ सिरफिरे लोगों के खिलाफ नहीं है। यह लड़ाई वहां केन्द्रीकृत केवल इसलिए हो गयी है कि वह धार्मिक राजनीतिक विचारधारा के हमलावर दस्ते का एक केंद्रीय गढ़ बन गया था अन्यथा वहां लडऩे वाले तालिबान व अलकायदा के पीछे उनकी विचारधारा वाली पूरी ग्लोबल शक्तियां कार्यरत हैं। इसलिए इस लड़ाई को जीतना है, तो पूरे वैश्विक (ग्लोबल) स्तर पर विचारधारा की लड़ाई छेडऩी पड़ेगी और जहां कहीं भी दूसरा पक्ष शस्त्र प्रयोग पर आमादा हो, वहां शस्त्रों का प्रयोग करना पड़ेगा। यह क्षेत्र अफगानिस्तान हो, पाकिस्तान हो या कोई और लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि जिहादी शक्तियों का अखाड़ा वहीं तक सीमित नहीं है। उसके दायरे में आज लगभग पूरी दुनिया है। इसलिए उसके साथ युद्ध की तैयारी भी पूरी दुनिया के स्तर पर करनी पड़ेगी।

राजनीतिक लाभ के लिए हिंदी का विरोध

महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे ने अब राज्य विधानसभा पर भी मराठी का डंडा घुमाना शुरू कर दिया है। उन्होंने सभी नवनिर्वाचित विधायकों को धमकी दी है कि यदि उन्होंने मराठी के अलावा और किसी भाषा में सदन की सदस्यता की शपथ ली तो फिर देख लेंगे कि सदन में उपस्थित उनके 13 विधायक क्या करते हैं। उनका कहना है कि सदन में केवल मराठी भाषा का व्यवहार होना चाहिए।राज्य विधानसभा में राज्य की भाषा का व्यवहार हो, इसमें किसी को आपत्ति नहीं हो सकती, लेकिन औपचारिक शपथ ग्रहण तक में इसकी बाध्यता को तो कतई लोकतांत्रिक करार नहीं दिया जा सकता। राज ने सदन में हिंदी तक के प्रयोग का निषेध किया है। उन्होंने हिंदी का विशेष तौर पर उल्लेख करते हुए उपर्युक्त चेतावनी दी है। हिंदी इस देश की राष्टï्रभाषा एवं राजभाषा है। किसी भी विधानसभा या केंद्र शासित प्रदेश में उसके प्रयोग का निषेध नहीं किया जा सकता। लोग स्वेच्छया मराठी का इस्तेमाल करें, यह अच्छी बात है, किन्तु किसी को बलपूर्वक हिंदी के प्रयोग से रोकना न केवल अलोकतांत्रिक, बल्कि एक तरह का राष्टï्र विरोधी कार्य है।इसे इस देश के संविधान व राजनीतिक प्रणाली की दुर्बलता ही कहा जाएगा कि ऐसे लोगों और उनके संगठनों को राजनीतिक मान्यता मिल जाती है और वे देश की विधायिकाओं में भी पहुंच जाते हैं, जिनका लोकतंत्र की सामान्य मर्यादाओं में भी कोई विश््वास नहीं है। अभी तक जम्मू-कश्मीर ही एक ऐसा राज्य था, जहां कोई विधायक स्वेच्छया हिंदी का इस्तेमाल नहीं कर सकता और यदि वह हिंदी में बोलना चाहता है, तो उसे इसके लिए स्पीकर से पूर्वानुमति लेनी पड़ती है, लेकिन अब महाराष्टï्र भी ऐसा राज्य बन जाएगा, जिसकी विधानसभा में दादागिरी के बल पर हिंदी का निषेध रहेगा।यहां यह उल्लेखनीय है कि महाराष्टï्र में यों भी सदन के भीतर मराठी का ही बोलबाला रहता है। बहुत कम लोग हिंदी और उससे भी कम लोग अंग्रेजी बोलते हैं, लेकिन राज ने यह धमकी देकर केवल यह जाहिर करने की कोशिश की है कि वह मराठी के एकमात्र अलम्बरदार हैं, बाकी सब मराठी विरोधी। वह अपने चाचा बाल ठाकरे के मराठावाद से भी आगे निकलना चाहते हैं। पिछले दिनों उन्होंने मराठावाद का जो हिंसक प्रदर्शन किया, उसका उन्हें चुनावों में जो शानदार प्रतिशाद मिला, उससे वह अब और अधिक उत्साहित हैं। ऐसा न होता, तो वह खुलेआम एक प्रेस कांफें्रस करके राज्य के 275 विधायकों को यह धमकी देने का साहस नहीं कर सकते थे।देश में यदि भाषा आधारित क्षेत्रीयताओं के आधार पर राज्यों का गठन किया गया है, तो वहां क्षेत्रीय राजनीति का उभरना या क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धा का पैदा होना स्वाभाविक है। बाल ठाकरे ने इस क्षेत्रीयता की भावना को भुनाकर ही अपना राजनीतिक आधार बनाया। लेकिन आज की राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में क्षेत्रीय अस्मिता के नाम पर किसी क्षेत्रीय दल को राष्टï्र विरोधी गतिविधियों की अनुमति तो नहीं दी जा सकती। क्या राज्य की कांग्रेस पार्टी इसका कोई प्रतिकार करेगी।

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

कश्मीर पर क्या कोई

सार्थक वार्ता संभव है?

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यह कहना सही है कि किसी भी समस्या के शांतिपूर्ण समाधान के लिए बातचीत के अलावा और कोई रास्ता नहीं होता, लेकिन सवाल है कि कश्मीर जैसे मुद्दे पर क्या पाकिस्तान अथवा कश्मीरी अलगाववादियों के साथ कोई सार्थक बातचीत हो सकती है। अब तक के अनुभवोंं का निष्कर्ष केवल यह है कि इनके साथ वार्ता का केवल नाटक हो सकता है, जिससे दुनिया को बता सकें कि हम कश्मीर समस्या के शांतिपूर्ण समाधान के लिए प्रयत्नशील हैं और फि र एक-दूसरे पर आरोप लगा सकें कि उनकी हठधर्मी के कारण वार्ता में कोई प्रगति नहीं हो पा रही है। हम मूल समस्या को बाजू रखकर परस्पर संबंध सुधारने का भी कई बार प्रयास कर चुके हैं, लेकिन उसमें भी कोई सफलता नहीं मिल सकी, क्योंकि पाकिस्तान तो संबंध सुधारना ही नहीं चाहता और भारत अपनी ओर से एकतरफा प्रयास करता रहता है।
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प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह तथा गृहमंत्री पी. चिदंबरम द्वारा कश्मीर समस्या के समाधान हेतु बिना शर्त वार्ता की नई पेशकश ने राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस मुद्दे पर एक नई चर्चा शुरू कर दी है। गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने गत 13 अक्टूबर को श्रीनगर में कहा कि 'कश्मीर का इतिहास और भूगोल दोनों अनूठे व अद्वितीय है, इसलिए उसे एक अनूठे या अलग ढंग के समाधान की जरूरत है।उन्होंने यह भी कहा कि 'इस समस्या का जो भी समाधान हो वह राज्य के विस्तृत बहुमत को स्वीकार्य होना चाहिए... इस समस्या के राजनीति आयाम को हल करने के लिए नई दिल्ली सभी तरह की विचारधारा वाले लोगों से बातचीत करेगी। इसके बाद जब प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह घाटी में पहले रेलमार्ग का उद्घाटन करने के लिए वहां गये, तो अपनी दो दिन की यात्रा के समापन के अवसर पर गुरुवार 29 अक्टूबर को आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में श्रीनगर में कहा कि जम्मू कश्मीर समस्या का समाधान ढूंढऩे की प्रक्रिया अब एक नये अध्याय में पहुंच गई है और आशा व्यक्त की कि उनके बातचीत के प्रस्ताव का उचित जवाब सामने आएगा। उन्होंने कहा कि यूपीए सरकार ने वायदा किया था कि वह सभी समस्याओं का शांतिपूर्ण समाधान हासिल करने का प्रयास करेगी। 'मैं समद्ब्राता हूं कि राज्य की शांति प्रक्रिया में एक नया अध्याय शुरू होने वाला है और हम लोग उसका पहला पन्ना पलट रहे हैं। हम समस्या के बाहरी और भीतरी दोनों आयामों का समाधान करेंगे। अनंतनाग में अनंतनाग काजीगुंड रेलमार्ग का उदघाटन करते हुए उन्होंने अलगाववादियों को बिना शर्त वार्ता की मेज पर आने का निमंत्रण दिया था। अपने उस प्रस्ताव को दोहराते हुए उन्होंने कहा हम प्रत्येक गुट के साथ गंभीर बातचीत करना चाहते हैं बस उनसे अपेक्षा यही है कि वे हिंसा का रास्ता छोड़ दें । इसके पूर्व उस दिन सुबह सीमा सुरक्षा बल, केन्द्रीय रिजर्व पुलिस, भारत तिब्बतन सीमा पुलिस तथा जम्मू कश्मीर पुलिस को संबोधित करते हुए डॉ. सिंह ने कहा कि कानून और व्यवस्था बनाए रखने की ज्यादा जिम्मेदारी पुलिस पर होनी चाहिए। उनका आशय साफ था कि राज्य में अर्धसैनिक बलों की भूमिका कम या समाप्त होनी चाहिए।चिदंबरम ने इसके पूर्व यह भी कहा था कि कश्मीर समस्या पर पर्दे के पीछे अनौपचारिक बातचीत चल रही है। अब उस गुप्त वार्ता के दौर के बाद खुली वार्ता के इस निमंत्रण से यह अनुमान लगाया जा रहा है कि संबंधित गुटों के साथ बातचीत की कोई आधारभूमि तैयार हो गई है। लेकिन अब सवाल है कि क्या है वह आधारभूमि जिसके चलते इस तरह की खुली वार्ता का निमंत्रण दिया जा रहा है।यदि यह सब सरकार की कश्मीर संबंधी कूटनीतिक कवायद का हिस्सा है, तब तो कोई बात नहीं, लेकिन यदि वास्तव में पर्दे के पीछे कोई सहमति की शिला तैयार हो रही है तो यह स्वभावत: पूरे देश की जिज्ञासा का विषय है कि आखिर किन आधारों पर मनमोहन सरकार कश्मीर समस्या का समाधान निकालने जा रही है।कश्मीर समस्या पर इतना कुछ लिखा जा चुका है और इतना सब बोला जा चुका है कि लिखे और बोले शब्दों का एक जंगल खड़ा हो गया है। कश्मीर समस्या पर भारत सरकार के अपने ही बदलते रुख के कारण और भ्रम की स्थिति पैदा हो गई है। सवाल है कि कश्मीर के अलगाववादियों से भारत सरकार कौनसा समद्ब्राौता करना चाहती है। कश्मीरी अलगाववादियों का केवल एक एजेंडा है- भारत से अलगाव। और इस अलगाव का कारण भी और कुछ नहीं मात्र मजहब है।भारत सरकार कश्मीर के मामले में इतना कुछ खो चुकी है कि उसके पास खोने के लिए और बचा ही कुछ नहीं है। कश्मीर के महाराजा हरीसिंह ने जिस कश्मीर राज्य का विलय भारतीय संघ में किया उसका आधे से भी कम इलाका भारत के पास रह गया है। पाकिस्तान ने 1947 में हमला करके एक बड़े हिस्से को अपने कब्जे में कर लिया। जो हिस्सा कब्जे में लिया उसके एक छोटे हिस्से को 'आजाद कश्मीरÓ की संज्ञा दी और वहां राष्टï्रपति और प्रधानमंत्री की नियुक्ति करके दिखावा किया कि वह कश्मीर पर कब्जा नहीं करना चाहता, बल्कि उसे आजाद कराना चाहता है। और करकोरम पर्वत श्रृंखलावाले बड़े क्षेत्र (नक्शे में देखें) को केन्द्रीय शासन के अंतर्गत रख लिया । इसके ही एक टुकड़े को जिसे 'सक्षम घाटी के नाम से जाना जाता है, उसने चीन को दोस्ती के एवज में भेंट कर दिया। लद्दाख से जुड़े अक्साईचिन क्षेत्र को 1962 के युद्ध में चीन ने अपने कब्जे में कर लिया। अब भारत के पास जम्मू कश्मीर घाटी का करीब दो तिहाई और लद्दाख का क्षेत्र रह गया है। अंतर्राष्टï्रीय नक्शों में यह क्षेत्र भी भारतीय सीमा में नहीं दिखाया जाता।अभी दुनिया के पत्रकारों का एक दल, जिनमें भारतीय पत्रकार भी शामिल थे, चीन गया तो उन्हें चीन की कुछ प्रचार सामग्री दी गई, जिसमें चीन के दक्षिणी सीमावर्ती देशों में भारत, नेपाल, म्यांमार, जम्मू कश्मीर और पाकिस्तान का नाम गिनाया गया था। उसमें यह भी लिखा गया था कि इन सीमावर्ती देशों में म्यांमार, भारत, नेपाल, पाकिस्तान में संप्रभु सरकारें हैं, किन्तु जम्मू कश्मीर विवादग्रस्त है और वहां बाहरी फौजों का जमाव है। यहां यह ध्यान देने की बात है कि नक्शे में स्वतंत्र जम्मू कश्मीर के नाम से जिस राष्ट्र का जिक्र किया गया है वह भारतीय सीमा में शामिल जम्मू कश्मीर का ही क्षेत्र है। पाक अधिकृत कश्मीर का उसमें जिक्र नहीं है। उसे तो चीन ने पाकिस्तान का अंग मान लिया है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान के कब्जे में उतना ही कश्मीर नहीं है जिसे 'आजाद कश्मीर कहा जाता है, बल्कि उससे कहीं बड़ा उसका उत्तरी भाग है, जिसका कभी जिक्र तक नहीं होता। शायद इसलिए भी नहीं कि इस क्षेत्र में (गिलगिट-बाल्टिस्तान) में अमेरिका ने एक सैनिक अड्डïा बना रखा है।जम्मू कश्मीर की समस्या के जटिलतर होते जाने का एक सबसे बड़ा कारण यह रहा है कि भारत सरकार ने हमेशा इस मसले को पर्दे में छिपाकर रखा। सच कहा जाए तो कश्मीर समस्या की जड़ भारत के उस स्वतंत्रता कानून (इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट) में ही पड़ गई थी, जिसे ब्रिटिश संसद ने 15 जुलाई 1947 को पारित किया था और जिस पर 18 जुलाई 1947 को महारानी की मुहर लगी थी। इस कानून के द्वारा ही भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य का विभाजन करके भारत और पाकिस्तान का निर्माण किया गया था। इस कानून के अनुच्छेद 7 (बी) के अंतर्गत भारत की सभी देशी रियासतों को ब्रिटिश सरकार के साथ हुई संधियों व समद्ब्राौतों से मुक्त कर दिया गया था। इसमें कश्मीर के महाराजा हरीसिंह के साथ ब्रिटिश सरकार का जो विशिष्टï समद्ब्राौता था, वह भी रद्द हो गया। इसके आधार पर यह भी कहा जाने लगा कि अब हरीसिंह का जम्मू कश्मीर पर शासन का अधिकार नहीं रहा।यह सभी को पता है कि जब पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया, तो उसके दबाव में हरीसिंह ने अपनी रियासत के भारत में विलय का निर्णय लिया और उसके बाद भारतीय फौजें कश्मीर में पाकिस्तानियों के मुकाबले के लिए उतरीं। यहां यह उल्लेखनीय है कि हरीसिंह ने उसी तरीके से भारत संघ में अपनी रियासत का विलय किया, जिस तरह अन्य देश की पांच सौ से अधिक रियासतों ने किया था, किन्तु हरीसिंह के हस्ताक्षरित दस्तावेज पर भारत के गवर्नर जनरल माउंटबेटन ने लिखा कि 'जम्मू कश्मीर का भारत में यह विलय अस्थाई होगा और युद्ध समाप्ति के बाद जम्मू व कश्मीर की जनता के द्वारा पुष्टि के बाद ही इसे अंतिम माना जाएगा।सवाल उठता है कि ऐसी टिप्पणी माउंटबेटन ने क्यों लिखी। पं. नेहरू ने इसका विरोध क्यों नहीं किया। जम्मू-कश्मीर केवल एक रियासत या सामान्य जमीन का टुकड़ा भर नहीं था । उसका देश की सुरक्षा की दृष्टि से सामरिक महत्व भी था । लेकिन हमारे शासकों ने इस महत्व को नहीं समद्ब्राा। माउंटबेटन ने जो नोट लिखा था, उसके अनुसार पूरे जम्मू कश्मीर की जनता (यानी पाक अधिकृत कश्मीर सहित) द्वारा विलय की पुष्टिï की जानी थी, लेकिन युद्ध समाप्ति के बाद भी यह कभी संभव नहीं हो सका। माउंटबेटन की सलाह पर अनावश्यक रूप से नेहरू इस मसले को सुरक्षा परिषद में ले गये। सुरक्षा परिषद ने तुरंत युद्धविराम लागू करने और विलय के प्रश्न को तय करने के लिए पूरे कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का निर्देश दिया। यह भी संभव नहीं हो सका, क्योंकि पाकिस्तान अपने कब्जे वाले क्षेत्र से सेना हटाने पर राजी नहीं हुआ। और सेना के हटे बिना जनमत संग्रह नहीं हो सकता था।यह कितना हास्यास्पद था कि कश्मीर की संविधान सभा, भारत की संविधान सभा से अलग बनी। इस संविधान को भारतीय संविधान की धारा 370 द्वारा मान्यता दी गई। कश्मीरी संविधान के अंतर्गत पाक अधिकृत कश्मीर के लिए विधानसभा में 25 सीटें निर्धारित हैं, जो अब तक खाली चली आ रही हैं। इस धारा 370 का ही प्रभाव है कि भारत की राष्ट्र भाषा या राजभाषा हिन्दी जम्मू कश्मीर में राजभाषा नहीं बन सकती। राज्य विधानसभा का कोई सदस्य अध्यक्ष (स्पीकर) से पूर्व अनुमति लिए बिना सदन में हिंदी में अपना वक्तव्य नहीं दे सकता। कश्मीर की यह विशेष स्थिति क्यों बनायी गयी, इसका कोई तर्कसंगत जवाब किसी के पास नहीं है। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के वार्ता के इस प्रस्ताव पर कश्मीर के अलगाववादी संगठनों की तरफ से जो प्रतिक्रियाएं हुई हैं वे भी ध्यातव्य है। प्राय: सभी ने वार्ता के इस प्रस्ताव का स्वागत किया है। पर्दे के पीछे वार्ता की कोशिश में लगे लोग इससे बहुत प्रसन्न हैं। उनका कहना है कि इस बार गृहमंत्री व पधानमंत्री दोनों की भाषा व श्ब्दावली अलग है। अलगाववादी गुटों के प्रमुख संगठन हुर्रियत कांफ्रेंस के नेता मीर वायज उमर फारुक ने वार्ता का स्वागत करते हुए कहा है कि 'भारत, पाकिस्तान और कश्मीर की समस्या बातचीत के अलावा और किसी तरह से हल नहीं हो सकती। और भारत व पाकिस्तान की सरकारें यदि किसी समझौते तक पहुंचती हैं, तो इससे कश्मीरी जनता का ही नहीं उनकी अपनी जनता का भी फायदा होगा।क्या निहितार्थ है इस टिप्पणी के। मीरवायज साहब पहले से ही कश्मीर को भारत से अलग मान रहे हैं। बातचीत के द्वारा वे केवल यह चाहते हैं कि भारत उनको अलग देश के रूप में स्वीकार कर ले। कश्मीर समस्या के समाधान के लिए अब तक तरह-तरह के कई फार्मूले आ चुके हैं। उसमें सबसे अधिक व्यावहारिक फैसला यह था कि वर्तमान नियंत्रण रेखा को ही भारत-पाकिस्तान के बीच की अंतर्राष्ट्रीय रेखा मान लिया जाए। 1971 के युद्ध के बाद हुए शिमला समझौते में भारत-पाक के बीच इसी फार्मूले पर सहमति बनी थी, लेकिन तत्कालीन पाक प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो पाकिस्तान वापस पहुंचने के बाद मुकर गये, क्योंकि उन्हें तो बंगलादेश के अलग हो जाने का बदला लेना था। भारत के नियंत्रण वाला कश्मीरी भू-भाग जब तक भारत के कब्जे से बाहर नहीं निकलता, तब तक पाकिस्तान को चैन कहां।इतना तो तय है कि किसी भी बातचीत से न तो चीन के कब्जे वाला 'आक्साईचिन भारत को वापस मिलने वाला है और न पाकिस्तान के कब्जे वाला 'गिलित बाल्टिक क्षेत्र व तथाकथित आजाद कश्मीर का क्षेत्र उसे मिलने वाला है। अमेरिका भी उसे पाकिस्तान से नहीं दिला सकता। फिर हमें बातचीत से क्या मिलने वाला है। बातचीत के माध्यम से हम कश्मीरी अलगाववादियों को थोड़ी और रियायत देकर या कश्मीर की स्वायत्तता का दायरा बढ़ाकर थोड़ी शांति खरीदना चाहते हैं। लेकिन इस तरह शांति मिलने वाली नहीं है। अलगाववादी तात्कालिक तौर पर थोड़ी उपलब्धि से संतुष्ट हो सकते हैं, क्योंकि वे कश्मीर की पूर्ण आजादी की तरफ कुछ कदम तो आगे बढ़े, लेकिन उसके बाद वे फिर आन्दोलन शुरू करेंगे। इस मामले में सच्चाई तो यह है कि यदि भारत पूरे जम्मू कश्मीर को स्वतंत्र कर दे या उसे पाकिस्तान को सौंप दे, तो भी शंति कायम होने वाली नहींं है। क्योंकि लड़ाई जमीन की नहीं मजहब की है। यह मजहब का ही तकाजा है कि लीबिया के राष्टï्रपति कनेल गद्दाफी संयुक्त राष्ट्र महासभा में कश्मीर को स्वतंत्र राष्ट्र बनाने की दुनिया से अपील करते हैं। सऊदी अरब के प्रिंस तुर्क अल फैजल अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा से अपील करते हैं कि वह भारत पर दबाव डालकर कश्मीर को स्वतंत्र कराये। यह मजहब का ही दबाव है कि इस्लामी देशों के संगठन (ओ.आई.सी.) ने कश्मीर को स्वतंत्रता दिलाने का प्रस्ताव पास किया, इसके लिए अपने इस्लामी दूत की घोषणा की, जो भारत मेंं मुस्लिम हितोंं की देखरेख करेगा।भारत सरकार से सबसे बड़ी शिकायत है कि अपने देश की जनता को भी कश्मीर के मामले मेंं विश्वास में नहीं ले रही है। आखिर उसकी दृष्टिï मेंं कश्मीर समद्ब्राौते का आधार क्या है। हम कश्मीर को पहले ही अपने से बहुत दूर कर चुके हैं। अब आगे और क्या करना चाहते हैं।प्रधानमंत्री की तरफ से वार्ता का प्रस्ताव आते ही 'हुर्रियत कांफ्रेंस तथा 'जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंटÓ के गुटोंं द्वारा यह मांग उठने लगी कि वार्ता के पहले जम्मू कश्मीर से सेना हटाई जाए। भारत सरकार ने 29 अक्टूबर को राज्य से 15000 सैनिकोंं को हटाने निर्णय लिया। यह उपर्युक्त अलगाववादी संगठनोंं को वार्ता के लिए आकर्षित करने के लिए किया गया।आखिर भारत सरकार सीधे-सीधे यह क्यों नहींं कहती कि वे हिंसा और अलगाववाद का रास्ता छोडऩे का वायदा करें, तो दिल्ली सरकार एक रात मेंं अपनी सारी फौज राज्य के भीतरी इलाकोंं से हटा लेगी। हम कश्मीर को पूर्ण स्वायत्तता देने के लिए तैयार हैं, लेकिन क्या वे भारतीय संविधान के अंतर्गत काम करने के लिए राजी हैं? यदि ऐसा नहींं है तो किसी भी तरह की वार्ता से क्या लाभ। 'जम्मू कश्मीर कौंसिल ऑफ ह्यïूमन राइटÓ के महासचिव डॉ. सैयद नजीर गिलानी ने पाकिस्तान से आग्रह किया है कि वह कश्मीर के बारे मेंं यथास्थिति पर अटका न रहे, बल्कि चीन का रवैया अपनाए, यानी कश्मीर को एक अलग राष्ट्र मानकर व्यवहार करे, जिस तरह चीन कर रहा है।भारत सरकार बात करे। बात करने से किसी को एतराज नहीं, लेकिन प्रधानमंत्री जी देश को कम से कम यह तो बताएं कि जम्मू कश्मीर के बारे में वह कौनसा नया अध्याय है, जिसका वह पन्ना पलटने जा रहे हैं। परस्पर विश्वास कायम करने के प्रयासों (कांफिडेंस बिल्डिंग मेजर) के तहत अब तक भारत ने कश्मीर में अपनी संवैधानिक तथा प्रशासनिक स्थिति को कमजोर किया है। क्या कहीं इस नये प्रयास से हम कश्मीर के पूर्ण अलगाव की नई शुरुआत तो नहीं करने जा रहे हैं ? सावधान रहें, कश्मीर का मसला केवल कश्मीर का नहीं है, वह पूरे भारत राष्ट्र से जुड़ा है। कश्मीर के साथ भारत की सांस्कृ तिक अस्मिता का ही नहीं सुरक्षा का सवाल भी जुड़ा हुआ है।

2009 के नोबेल पुरस्कार विजेता

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वर्ष 2009 के नोबेल पुरस्कार विजेताओं में से कई नाम शायद आगे आने वाले वर्षों में लंबे समय तक याद किये जाते रहेंगे। भौतिकी के पुरस्कार विजेता 'द मास्टर्स ऑफ लाइटÓ तो पहले ही इतिहास में अपना नाम दर्ज करा चुके हैं, लेकिन मेडिसिन और रसायन के क्षेत्र में जो लोग सम्मानित किये गये हैं, उनकी उपलब्धियां भी ऐसी हैं कि उन्हें भी भुलाया नहीं जा सकेगा। गर्व की बात यह है कि इनमेें एक भारतीय नाम भी शामिल है। शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए चुना गया नाम तो भविष्य की संभावनाओं को देखते हुए चुना ही गया है, इसलिए वह तो भविष्य में चर्चा का विषय रहेगा ही, साहित्य के लिए चुनी गयी लेखिका भी शायद इसलिए याद की जाएगी कि कम्युनिस्ट त्रासदी का चित्रण करने के लिए नोबेल जैसा सम्मान पाने वाली शायद वह अंतिम लेखक या लेखिका होगी।

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ऑफ वर्ष 2009 के नोबेल पुरस्कारों की घोषण हो चुकी है। भौतिकी, चिकित्सा व रसायन में तीन-तीन लोगों को पुरस्कार में शमिल किया गया है। यह तीनों ही पुरस्कार निश््चय ही अपने क्षेत्र के श्रेष्ठïतम लोगों को दिये गये हैं, जिनकी खोजों ने मानवता को प्रत्यक्ष लाभ पहुंचाया है या जिससे भविष्य में उल्लेखनीय लाभ पहुंच सकता है। साहित्य का पुरस्कार एक अल्पज्ञात जर्मन लेखिका को प्राप्त हुआ है, लेकिन उसे लेकर भी कोई विवाद नहीं है। हां, शांति का नोबेल पुरस्कार इस बार भी निश्चय ही विवाद का विषय बना है, लेकिन इस चयन के लिए उस स्वीडिश चयन समिति की सराहना की जानी चाहिए, जिसने वर्तमान की उपलब्धियों से अधिक भविष्य की संभावनाओं को ध्यान में रखकर पुरस्कार के योग्य व्यक्ति का चयन किया है।भौतिकी (फिजिक्स) का नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले वैज्ञानिकों को 'द मास्टर्स आफ लाइटÓ की संज्ञा दी गयी है। इनमें शामिल हैं चाल्र्स कुएन काओ। शंघाई (चीन) में जन्में काओ की ही खोज का कमाल है कि आज अंतर्राष्टï्रीय संचार की गति इतनी तेज हो गयी है। स्टैंडर्ड टेली कम्युनिकेशन लेबोरेटरी (यू.के.) में कार्यरत काओ की सबसे बड़ी चिंता थ्ी कि प्रकाश को लंबी दूरी के संचार के लिए कैसे इस्तेमाल किया जाए। ग्लास फाइबर रोशनी ले जा सकते हैं, यह तो पहले से पता थ, लेकिन पहले की स्थिति यह थी कि 20 मीटर जाने पर ही प्रकाश की 90 प्रतिशत क्षमता समाप्त हो जाती थी। पहले उन्होंने लक्ष्य रखा कि एक किलोमीटर तक प्रकाश को कैसे ले जाया जाए, लेकिन अब तो पूरी दुनिया का संचार इन ऑप्टिकल फाइबर केबिलों पर टिक गया है। ऑप्टिकल फाइबर इंटरनेट की तो रीढ़ है। वेब पेजज को लेना हो, ई-मेल करना हो, चैटिंग करनी हो या यू ट्ïयूब वीडियोज का आनंद लेना हो, यह सब ऑप्टिकल फाइबर के प्रकाश संचार बिना संभव नहीं था। और इन तारों से गुजरने वाली वीडियो छवियां (फोटोज) ज्यादा सीसीडी या उस जैसी डिवाइस से लैस कैमरों से आती हैं। फोटोग्राफिक फिल्में इसी कमाल के चलते इतिहास की वस्तु बन गयी हैं। मोबाइल फोन के कैमरे ही नहीं, हबल जैसे अंतरिक्ष में घूमने वाले विशाल कैमरों के शानदार चित्र भी इसी तकनीक से प्राप्त होते हैं। अंतरिक्ष यानों में लगे कैमरे भी सीसीडी आधारित ही होते हैं। आज करीब एक अरब किलोमीटर लंबी ऑप्टिकल फाइबर केबिल मानव की संचार सेवा में लगी हैं। इतनी बड़ी केबिल जिससे पूरी धरती को करीब 25 बार लपेटा जा सकता है।भौतिकी के पुरस्कार की आधी रकम अकेले काओ को दी गयी है। दसरे दो वैज्ञानिक हैं अमेरिका में जन्में और वहीं की बेल लेबोरेटरी में कार्यरत बिलियर्ड स्टर्लिंग बायल और जार्ज एलवुड स्मिथ। इन दोनों ने 'इमेजिंग सेंसरÓ सी.सी.डी. (चाज्र्ड कपल्ड डिवाइस) तैयार करने में कमाल दिखाया है। इनकी खोजों से ही यह संभव हुआ कि मोबाइल फोन में भी कैमरे आ गये। 'इलेक्ट्रॉनिक मेमोरीÓ को बेहतर बनाने तथा इलेक्ट्रॉनिक ढंग से फोटो लेने (इलेक्ट्रॉनिक कैप्चरिंग मेमोरी) में इन दोनों ने क्रांतिकारी भूमिका अदा की। पुरस्कार की आधी रकम इन दोनों में बराबर-बराबर बांटी गयी है।चिकित्सा विज्ञान (मेडिसिन एवं फिजियोलॉजी) का पुरस्कार भी तीन लोगों में बांटा गया है। ये तीनों अमेरिका में कार्यरत हैं, जिनमें दो महिलाएं हैं, जो अमेरिका में ही पैदा हुई हैं। इनमें एलेजाबेथ ब्लैकबर्न यूनिवर्सिटीकेलिफोर्निया में और कैरोल डब्लू ग्रेइडर बाल्टीमोर के जान हापकिंस यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन में पढ़ाती हैं। तीसरे जैक डब्लू शेस्टाक की पैदाइश लंदन की है, लेकिन कार्यरत अमेरिका के हार्वर्ड मेडिकल स्कूल में हैं। यह रोचक है कि चिकित्सा में पहली दो महिलाओं को नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ है।इनकी खोज भी बड़ी रोचक है। यह तो सभी जानते हैं कि कोशिकाएं जब विभाजित होती हैं, तो उनके गुण सूत्र (क्रोमोजोम) भी दो जोड़ों में विभाजित हो जाते हैं। लेकिन इन विभाजनों के दौरान कभी कोई गलती नहीं होती और वे खराब भी नहीं होते। इन तीनों ने यह पता लगाया कि गुण सूत्रों की प्रतिक्रति कैसे बनती है और कैसे उनसे कोई गड़बड़ी नहीं होने पाती। इन लोगों ने गुण सूत्रों के उस रसायन का पता लगाया, जो उनके विभाजन पर नजर रखता है। जैसे जूते के फीतों के सिरे पर प्लास्टिक की एक कैप लगी रहती है, जो उस सिरे को बिखरने से बचाए रखती है, वैसे ही गुण सूत्रों के सिरों पर एक रासायनिक संरचना होती है, जो पूरे गुण सूत्र पर नजर रखती है और उसके विभाजन को नियंत्रित करती है। यह खोज बहुत महत्वपूर्ण है। इससे मनुष्य के वृद्ध होने के कारणों, कैंसर तथ स्टेम कोशिकाओं के बारे में और जानकारी जुटाई जा सकेगी। इससे मनुष्य के स्वस्थ दीर्घायुष्य के चिकित्सकीय उपाय किये जा सकेंगे। तीसरा रसायन का नोबेल पुरस्कार विज्ञान व मनुष्यता के लिए तो महत्वपूर्ण है ही, यह भारत के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस पुरस्कार को प्राप्त करने वाले तीन वैज्ञानिकों में एक भारतीय नाम भी है। वेंकटरमन रामकृष्णन आज भले ही अमेरिकी नागरिक हैं, लेकिन भारत से उनके संबंध जीवित हैं। 1952 में तमिलनाडु के धार्मिक शहर चिदंबरम में जन्में रामकृष्णन ने विज्ञान में स्नातक (बी.एस.सी.) की उपाधि महाराजा सयाजीराव विश््ïवविद्यालय, बड़ौदा से प्राप्त की। अभी वह तीन वर्ष के ही थे कि तमिलनाडु से उनके पिता गुजरात के बड़ौदा में आ गये। उनके पिता सी.वी. रामकृष्णन व माता राजलक्ष्मी भी जैव वैज्ञानिक थे। वस्तुत: सी.वी. रामकृष्णन ने ही बड़ौदा की महाराज सयाजीराव यूनिवर्सिटी में 1955 में बायोकेमेस्ट्री डिपार्टमेंट की स्थापना की। इस समय सी.वी. रामकृष्णन सियेटेल में हैं, लेकिन वेंकटरमन के बड़ौदा और तमिलनाडु से संबंध अब भी बने हुए हैं। इसलिए उनकी उपलब्धि पर भारतीयों का भी गर्वित होना स्वाभाविक है। उनके साथ इस पुरस्कार में समान रूप से भागीदार दो अन्य वैज्ञानिकों में से एक अदा. इ. योनाथा इजरायल की हैं और वहीं की विजमन यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस मेंजाता था। काम मुश्किल जरूर था, लेकिन इसकी राह दिखायी अदा.इ. योनाथा ने, फिर तो वेंकटरमन और स्टीट्ïज जैसे लगनशील वैज्ञानिकों ने इस कार्य को अंजाम तक पहुंचा दिया। इनतीनों कार्यरत हैं और दूसरे थामस ए. स्टीट्ïज अमेरिका के हैं और येल विश््ïवविद्यालय में कार्यरत हैं। इन तीनों ने एक ऐसे मुश्किल कार्य को कर दिखाया है, जिसे पहले प्राय: असंभव माना ने प्रकृति के एक ऐसे अज्ञात रहस्य को सुलद्ब्रााया है, जिसकी भविष्य में असीमित संभावनाएं हैं।प्रकृति में जितने जीव हैं -माइक्रोव्स, पौधे या जीव जंतु सभी 'रिबोजोमÓ पर निर्भर करते हैं। यह रिबोजोम प्रत्येक जीवित कोशिका का एक अनिवार्य एवं जटिल तत्व है। यह गुण सूत्रों पर स्थित 'जीनोंÓ में अंकित सूचनाओं (ब्लू पिं्रट) के आधार पर उन प्रोटिनों के निर्माण का कार्य करता है, जिन पर यह पूरा जीवन निर्भर है। वास्तव में यह रिबोजोम एक अत्यंत जटिल आणविक (मालिक्यूलर) मशीन है, जो सैकड़ों हजारों परमाणुओं से मिलकर बनी है। इन तीनों वैज्ञानिकों ने इस 'रिबोजोमÓ का परमाणविक मॉडल तैयार कर दिया। यानी यह बता दिया कि इसके हजारों हजार परमाणु कहां पर किस तरह स्थित है। इससे यह पता लगाने में मदद मिली की ये रिबोजोम कैसे इन असंख्य प्रोटीनों का निर्माण करते हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि एंटीबायोटिक दवाइयां बैक्टीरिया की कोशिका के भीतर स्थित रिबोजोम पर ही हमला करते हैं। अब इस अध्ययन से यह भी पता चल गया कि एंटीबायोटिक कैसे काम करते हैं। इस रिबोजोम के परमाणुओं के स्थान का कैसे पता लगाया जाए, यह बड़ी समस्या थी। 1980 में योनाथा ने रिबोजोम की एक बड़ी इकाई का क्रिस्टल बनाने में सफलता प्राप्त की। इसका एक्स-रे 'स्नैपशॉटÓ लिया गया। यह रिबोजोम की गुत्थी सुलद्ब्रााने की दिशा में पहला कदम था। लेकिन दूसरा कदम उठाने में योनाथ को 20 वर्ष लग गये, जब एक एटम का चित्र लिया जा सका। वेेंकटरमन रामकृष्णन 'मेडिकल रिसर्च कौंसिल लेबोरेटरी ऑफ मालिक्यूलर बायोलॉजी, कैंब्रिजÓ (यू.के.) में कार्यरत थे। उन्होंने अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी के एक पोस्ट डाक्टोरल फिलो के रूप में रिबोजोम पर काम करना शुरू किया। उन्होंने रिबोजोम की छोटी इकाईयों (स्मॉल सबयूनिट्ïस) की मैपिंग शुरू की। उन्होंने भी एक्स-रे की सघन किरणों (इंटेंस बीम ऑफ एक्स-रे) की मदद से यह काम शुरू किया। इस क्रम में उनकी एक सबसे महत्वपूर्ण खोज यह थी कि रिबोजोम जो भी प्रोटीन बनाता है, उसमें से प्रत्येक प्रोटीन केवल 20 एमीनो एसिड्ïस के विभिन्न संयोजनों द्वारा बनते हैं। इस बीच स्टीट्ïज ने यह खोज कर ली कि एक्स-रे फोटोज की व्याख्या कैसे की जाए या उसे समद्ब्राा कैसे जाए। उन्होंने यह भी पता लगा लिया कि दो एमीनो एसिड्ïस के बीच के रासयनिक संबंध कैसे बनते हैं। बस फिर क्या था। रिबोजोम का पूरा ढांचा सामने आ गया। इसके अलावा यह भी पता चला कि जीन में मौजूद सूचनाओं को पढ़कर रिबोजोम, जो प्रोटीन बनाते हैं, उसमें कोई गलती क्यों नहीं होने पाती। यदि कोई गलती होती भी है, तो वह एक लाख में कोई एक। रामकृष्णन ने इस तत्व की भी पहचान कर ली, जो इस बात पर निगरानी रखता है कि जीन में स्थित सूचनाओं को पढऩे व उसके अनुकूल प्रोटीन के निर्माण में कोई गलती न होने पाए। इस खोज की भविष्य में असीमित संभावनाएं हैं। तात्कालिक संभावना तो नई एंटीबायोटिक्स की डिजाइनिंग की है। बहुत से बैक्टीरिया कई एंटीबायोटिकों के अवरोधी बन गये हैं। उनके लिए भी नये एंटोबायोटिक तैयार हो सकते हैं। फिर जैव प्रोटीनों के निर्माण की विशाल दुनिया का यूं ही असीमित उपयोग हो सकता है।साहित्य का नोबेल पुरस्कार इस वर्ष रोमानिया की कम्युनिस्ट तानाशाही में जन्मीं जर्मन लेखिका हेर्ता मुलर को दिया गया है। रोमानिया के शासक निकोलई सिजेस्क्यू के दौर में वहां अल्पसंख्यक जर्मन समुदाय की क्या हालत थी, उनकी जिंदगी कितनी मुश्किलों से भरी थी, इसका अत्यंत सजीव चित्रण हेर्ता मुलर ने अपने साहित्य में किया है। स्वीडिश एकेडमी के स्थाई सचिव पीटर इंग्लैंड ने मुलर के अत्यंत संवेदनशील काव्य एवं उन्मुक्त गद्य की सराहना करते हुए कहा है कि लेखिका ने तत्कालीन रोमानिया में पिसते अल्पसंख्यक समुदाय के जीवन की विडंबनाओं का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया है।इस बार शांति पुरस्कार को लेकर सर्वाधिक विवाद खड़ा हुआ। स्व्यं वह व्यक्ति भी हैरान था, जिसे यह पुरस्कार मिला। अमेरिकी राष्टï्रपति बराक हुसैन ओबामा को उनके सेक्रेटरी ने सुबह के 6 बजे जगाकर यह सूचना दी कि उन्हें शांति का नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा की गयी है। वह यह सूचना पाकर चकित हो गये। बाद में उन्होंने मीडिया के सामने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि मैं अपने को इस पुरस्कार के योग्य नहीं मानता। मेरी उनके साथ कोई बराबरी नहीं है, जिन्हें अपसे पहले यह पुरस्कार मिला है। फिर भी मैं यह सम्मान स्वीकार करता हूं। लोग यह पूछ रहे हैं कि ओबामा ने आखिर किया क्या है, जिसके लिए उन्हें शांति का नोबेल पुरस्कार दिया गया। अभी उनको अमेरिका का राष्टï्रपति पद संभाले भी मुश््िकल से दस महीने हुए हैं। उन्होंने बातें अवश्य अब तक बहुत की हैं, लेकिन उनकी उपलब्धि क्या है । बात किसी हद तक सही है, लेकिन पुरस्कार की चयन समिति के दृष्टिïकोण को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता। अपने दस महीने के कार्यकाल में ओबामा ने जो संभावनाएं जगायी हैं, वे किन्हीं उपलब्धियों से कम नहीं हैं। ओबामा दूसरे अश््वेत अमेरिकी हैं, जिन्हें शांति के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। पहला नाम मार्टिन लूथर किंग जूनियर का, जिन्हें 1964 में 35 वर्ष की आयु में यह सम्मान दिया गया था। एक अश््वेत पूरे अमेरिका की श््वेत आबादी के दिलों पर कब्जा करके उनका समर्थन प्राप्त कर ले, यह अपने आप में एक उपलब्धि है। फिर ओबामा ने राष्टï्रपति पद संभालते ही सबसे पहले विश््व की मुस्लिम आबादी के साथ अमेरिका के मैत्रीपूर्ण संबंधों की शुरुआत की और यह संदेह दूर करने की कोशिश की कि आतंकवाद के खिलाफ अमेरिकी संघर्ष कोई इस्लाम के खिलाफ घोषित संघर्ष नहीं है। उन्होंने सत्ता हासिल करते ही इराक से अमेरिकी सैनिकों की वापसी की घोषणा की। पूर्व राष्टï्रपति बुश द्वारा यूरोप में मिसाइल प्रतिरक्षा प्रणाली स्थापित करने की घोषणा के कारण रूस के साथ जो तनावपूर्ण स्थिति पैदा हो गयी थी, ओबामा ने उसे शांति किया और मिसाइल प्रतिरक्षा प्रणाली कायम करने का निर्णय रद्द कर दिया। उन्होंने ईरान के साथ भी वार्ता की पहल की और उस पर मंडरा रहे अमेरिकी हमले के खतरों को दूर किया और ओबामा की सबसे अधिक प्रशंसनीय पहल जो थी, वह यह कि उन्होंने पूर्ण परमाणु निरस्त्रीकरण का आह्वान किया। वह पहले अमेरिकी राष््ट्रपति हैं, जिन्होंने दुनिया को पूरी तरह परमाणु अस्त्रों से मुक्त करने का विचार सामने रखा है। यद्यपि यह सभी जानते हैं कि यह कार्य इतना आसान नहीं है, लेकिन अब तक पूर्ण परमाणु निरस्त्रीकरण में सबसे बड़ी बाधा अमेरिका को ही माना जाता था, लेकिन अब अमेरिका ही इसका प्रस्ताव कर रहा है। वास्तव में विश््व के प्रति अमेरिकी दृष्टिïकोण विश््व शांति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। ओबामा की अभी कोई उपलब्धि सामने नहीं है, लेकिन उनके शांतिपरक विचारों के कारण भविष्य की संभावनाएं बहुत अधिक हैं। यह नोबेल शांति पुरस्कार अब उनके ऊपर एक नैतिक दबाव का भी काम करेगा। उन्हें अपने को इसके अनुकूल सिद्ध करना होगा। संभव है इसके साये में वह शांति के लिए और बेहतर कार्य कर सकें।कुल मिलाकर इस वर्ष के सारे नोबेल पुरस्कार मानवता के श्रेष्ठïतम हित में दिये गये हैं। पुरस्कार हर वर्ष दिये जाते हैं और अपने-अपने क्षेत्र की श्रेष्ठïतम उपलब्धियों के लिए दिये जाते हैं। किंतु इस बार के सारे पुरस्कार ऐसे हैं, जिनका प्रत्यक्ष लाभ देखा जा सकता है।